ज्ञान-विज्ञान-12
परायण, एक ऐसा शब्द जिसके अंतर्गत कई
विशेषताएं आ जाती है | श्रद्धा, विश्वास, अनन्य भक्ति, समर्पण और शरणागति आदि सभी
शब्द परमात्मा के परायण होने के अंतर्गत ही है | परमात्मा के परायण होने का अर्थ
है- परमात्मा में श्रद्धाभाव का होना, परमात्मा में विश्वास करना, उसके प्रति पूर्ण
समर्पण का भाव होना, परमात्मा के अतिरिक्त अथवा उसके समकक्ष किसी अन्य को न मानना तथा
सदैव उसकी शरण में ही रहना | मीरा बाई परमात्मा के प्रति परायण थी, तभी तो एक
महिला होकर भी छाती ठोक कर कह सकी कि “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई “|
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान-योग
को श्रेष्ठ मार्ग बताया अवश्य है परन्तु परमात्मा को स्वरूप से जानने के लिए ज्ञान
के साथ भक्ति आवश्यक है | भक्ति का एक अर्थ परमात्मा के प्रति श्रद्धा होना भी है |
बिना श्रद्धा के भक्ति फलित नहीं होती है | इसी भगवत-श्रद्धा को ही परमात्मा के प्रति
परायण होना कहते हैं | योगी ज्ञानी कहलाता है और परमात्मा के प्रति श्रद्धा रखने
वाला योगी साक्षात् परमात्मा ही हो जाता है | परमात्मा के प्रति परायण योगी ही
श्रेष्ठ योगी होता है | भगवान गीता में इसी बात को अर्जुन को इस प्रकार समझाते
हैं-
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स में
युक्ततमो मतः || गीता 6/47 ||
अर्थात सम्पूर्ण
योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता
है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है |
जिस ज्ञान योगी की परमात्मा के प्रति
ऐसी श्रद्धा हो, और वह परमात्मा का
अंतर्मन से निरंतर चिंतन करे, वही उस परम पिता के वास्तविक स्वरूप को जान
और समझ सकता है | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्पष्ट तौर से कहा है कि सिर्फ ऐसा
ज्ञान योगी ही मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है | शास्त्रों के स्वाध्याय से ज्ञान को तो
उपलब्ध हुआ जा सकता है परन्तु परमात्मा के प्रति श्रद्धा जागृत हो ही, कहा नहीं जा
सकता | प्रायः ऐसा देखने और सुनने में आता है कि ज्ञान की अवस्था प्राप्त करने के
बाद भी व्यक्ति परमात्मा के मार्ग से विचलित हो जाता है और वह उसके परम स्वरूप को
जानने से वंचित रह जाता है | इसका एक मात्र कारण ज्ञानी होने का अहंकार है | यह
अहंकार केवल शास्त्रों को पढ़ कर ही स्वयं को ज्ञानी मान लेने से पैदा होता
है | अगर इस ज्ञान के साथ परमात्मा में श्रद्धा पैदा हो जाये तो व्यक्ति कभी भी पथच्युत
नहीं हो सकता | इस श्रद्धा को पैदा करने में ही गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण है |
गुरु आपके इस ज्ञान को श्रद्धा की धार देता है, जो व्यक्ति को परमात्मा के वास्तविक
स्वरूप से परिचित कराने में सहायक सिद्ध होती है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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