श्रीमद्भागवत्
महापुराण में भगवान कहते हैं-
एवं
ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्माSSत्मना ततः|
उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे
||भागवत-10/82/47 ||
अर्थात सभी
प्राणियों के शरीर में यही पाँच भूत कारण रूप से स्थित हैं, और आत्मा भोक्ता के
रूप से अथवा जीव के रूप में स्थित है | परन्तु मैं इन दोनों से परे अविनाशी सत्य
हूँ | ये दोनों ही मेरे में प्रतीत हो रहे हैं, तुम लोग ऐसा ही अनुभव करो |
इस संसार में चाहे जितने भी चर-अचर और
जड़-चेतन जैसी विभिन्न रचनाएँ दृष्टिगत हों, प्रत्येक के पीछे परमात्मा ही हैं | जड़-चेतन
प्रकृतियाँ तो परमात्मा इस संसार को विभिन्न रूप प्रदान करने के लिए पैदा करते है |
इन प्रकृतियों को आधार तो केवल परमात्मा ही प्रदान करते है | बिना परमात्मा के इस
संसार का उत्पन्न होना भी संभव नहीं है और नष्ट होना भी नहीं | मनुष्य को तो
विज्ञान के रूप में, चूहे की तरह हल्दी की एक छोटी सी गांठ मिल गयी है, जिसके कारण वह अपने आपको पंसारी समझ बैठा है | जबकि
उसे समझना होगा कि विज्ञान तो परमात्मा के ज्ञान का एक अति सूक्ष्म अंश मात्र है,
अभी भी उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बहुत लम्बा रास्ता शेष पड़ा है | जब तक
विज्ञान, सम्पूर्ण ज्ञान की सीमा तक पहुंचने वाला होगा, हो सकता है; तब तक परमात्मा
इस संसार के प्रलय का निर्णय ही ले ले | विज्ञान के द्वारा खोज के नाम पर किये
जाने वाले विभिन्न प्रयोग ऐसे ही किसी संभावित विध्वंस की ओर इशारा कर रहे हैं |
‘इस समस्त जगत का प्रभाव और प्रलय मैं
ही हूँ’ परमात्मा के इस कथन का अब तक मैंने वैज्ञानिक आधार पर विवेचन किया है | यह
विवेचन भी केवल हमारी अपरा प्रकृति के प्रति आसक्ति को ही व्यक्त करता है | हमारे
जीवन के आधार भूत तत्व और चेतनता के मिलन और दुराव से प्रभाव और प्रलय संभव होता
है, यह विज्ञान की दृष्टि में एक सत्य है | इस वैज्ञानिक सत्य के अतिरिक्त एक
आध्यात्मिक सत्य ओर भी है | अतः इस संसार के प्रभव और प्रलय का आध्यात्मिक विवेचन भी
करना आवश्यक है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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