ज्ञान-विज्ञान-10
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परमात्मा अव्यक्त
होते हुए भी इस व्यक्त जगत का मूल है | वेद से तात्पर्य ज्ञात ज्ञान से है | अगर यह
ज्ञात ज्ञान; विज्ञान अथवा अविद्या है तो ऐसा ज्ञान संसार में भटकाने वाला है,
क्योंकि ऐसा ज्ञान फलोन्मुख होता है जो बंधन ही पैदा करता है | अगर यह ज्ञान
वेदानुसार वास्तविक ज्ञान है, तो ऐसा ज्ञान मूल सहित समस्त वृक्ष को तत्व रूप से मनुष्य
को स्पष्ट कर देता है | मूल से वृक्ष कभी भी अलग नहीं है, उसी प्रकार यह संसार भी
परमात्मा से विलग नहीं है | यही वास्तविकता में वैदिक ज्ञान है |
जब आप बाहर की यात्रा की दिशा बदलकर
भीतर की यात्रा करना प्रारम्भ करते है, आप योगी होने की और अग्रसर हो जाते हैं | योग
में योगी की दृष्टि कैसी हो जाती है, उसका
वर्णन करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
सर्वभूतस्थामात्मानं सर्वभूतानि
चात्मनि |
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः
|| गीता-6/29 ||
अर्थात सर्वव्यापी
अनंत चेतन में एकाकी भाव से स्थित रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव
से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा
में कल्पित देखता है |
पेड़ की पत्तियां, पुष्प व फल इत्यादि
मूल के कारण ही संभव है, बिना मूल के इनमें से किसी एक का भी अस्तित्व नहीं है |
अतः सभी एक दूसरे के पूरक हैं | इसी प्रकार इस संसार का मूल आत्मा है, और आत्मा ही
परमात्मा है | मूल सहित समस्त वृक्ष को एक रूप में देख लेना ही सम्पूर्ण ज्ञान है
और केवल दृष्टिगोचर होने वाले वृक्ष के हिस्से यानि पत्तियों, पुष्प और फल को भिन्न
भिन्न रूप में देखना ही विज्ञान है |
योगी समस्त वृक्ष को एक साथ समग्र रूप से
देखता है | वह मूल से पुष्प पर्यंत समस्त वृक्ष को अलग अलग हिस्से के रूप में
देखता है और वह यह भी जानता कि सम्पूर्ण वृक्ष का आधार यह मूल ही है परन्तु फिर भी
यह ज्ञान अभी भी विज्ञान की श्रेणी के अंतर्गत ही है | अभी भी योगी मूल (अव्यक्त) को
भी वृक्ष (व्यक्त) का ही एक हिस्सा मात्र मानता है, जबकि वास्तव में मूल (अव्यक्त)
ही इस वृक्ष (व्यक्त) का आधार है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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