हमारा यह संसार वास्तव में है क्या, कैसे इसका निर्माण हुआ ? ब्रह्माण्ड
में कई ऐसे ग्रह भी हैं जहाँ जीवन नहीं है, वहां पर हमारे जैसे संसार का निर्माण
क्यों नहीं हुआ है ? इन प्रश्नों के उत्तर मिल जाने पर सब कुछ स्पष्ट हो जाता है |
परमात्मा ने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊं, ‘सोSकामयात् बहुस्याम्’ | कामना
का पैदा होना, बिना मन के संभव ही नहीं है अर्थात कामना मन में ही पैदा होती है,
अन्यत्र नहीं | इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मन भी परमात्मा का ही एक स्वरूप हुआ
|
इसी प्रकार संसार का निर्माण भी केवल
पाँच भौतिक तत्व ही नहीं करते हैं बल्कि इन पाँच तत्वों के साथ अन्य तीन, मन,
बुद्धि और अहंकार मिलकर ही संसार का निर्माण करते हैं और इन तीनों में मन की
भूमिका महत्वपूर्ण रहती है | इस प्रकार ये आठों तत्व जड़ प्रकृति के हैं अतः यह संसार
भी जड़ प्रकृति का हुआ | मन के संकल्प और विकल्प ही इस संसार का निर्माण करते हैं |
जब इस अष्टधा जड़ प्रकृति के साथ परा चेतन प्रकृति का संयोग हो जाता है तब इसे जगत
का प्रभव होना कहा जाता है | यह संयोग हमारे मन के संकल्प के कारण ही परमात्मा
कराते हैं अन्यथा नहीं | इसका एक ही अर्थ हुआ कि अगर हमारे मन में किसी भी प्रकार
के संकल्प विकल्प नहीं रहेंगे तो परमात्मा ऐसे संयोग को कराने को बाध्य नहीं होंगे
और अगर पहले ही संयोग हो चुका है तो फिर उसका विलगाव हो जायेगा | जब संयोग ही नहीं
रहेगा तो फिर संसार का अस्तित्व भी कैसे रह पाएगा ? ऐसा विलगाव ही संसार का प्रलय
है |
मन के कारण ही हम यहाँ में बार बार
जन्म लेते हैं और अपने संसार का निर्माण करते हैं | जिस दिन हमारे मन में किसी प्रकार
की कोई कामना नहीं रहेगी, कोई संकल्प शेष नहीं रहेगा हम इस संसार से मुक्त हो
जायेंगे | इसी को जीवन मुक्त होना कहते हैं | संसार में बने रहना ही इसका प्रभव है
और संसार से मुक्त हो जाना इसका प्रलय | यह प्रभव और प्रलय हमारे भीतर ही घटित
होता है, हमसे बाहर नहीं | मन की उठा पटक संसार का प्रभव है और मन को शांत कर
लेना, निर्मल कर लेना प्रलय | परमात्मा की प्राप्ति स्वयं के भीतर के प्रलय से
होगी | संसार के प्रभव और प्रलय का कारण केवल परमात्मा ही है क्योंकि उसके बिना न
तो मन का अस्तित्व है, न ही चेतनता का और न ही संसार का |
मन के निर्मल होते ही परमात्मा का यथार्थ
ज्ञान हो जाता है | गोस्वामीजी श्री रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में स्पष्ट करते हैं
–
‘निर्मल मन जन सो
मोहि पावा | मोहि कपट छल छिद्र न भावा ||’(मानस-5/44/5)
अतः यह समझ लें कि मन है, तो संसार है और
मन को नियंत्रित कर लिया तो फिर इस जगत में रहते हुए भी यह आपके लिए कुछ भी नहीं
है, आपको यह किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं कर सकता | प्रलय आंतरिक रूप से होना
आवश्यक है, नहीं तो हमारे लिए परमात्मा को जानना बहुत ही दूर की बात होगी | वह बात
और है कि प्रभव और प्रलय स्वयं परमात्मा के कारण ही संभव है, जिसे पहले ही स्पष्ट
किया जा चूका है |
क्रमशः
||हरिः शरणम् ||
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