Saturday, May 31, 2014

भावप्रधान प्रार्थना |

                                  भाव आपके मन में तभी पैदा हो सकते हैं जब आपकी कथनी और करनी समान हो । अगर हमारे मुंह से जो शब्द निकल रहे है उनमे और मन में उठ रहे विचारों में अंतर हो तो उस बोली जा रही प्रार्थना का कोई मतलब नहीं रहता । प्रार्थना तभी सार्थक हो सकती है जब आपके तन का सामंजस्य आपके मन के साथ हो । आज इस भौतिक संसार में व्यक्ति इतना व्यस्त हो गया है कि उसे एक काम को पूरा करने से पहले ही दूसरा कार्य प्रारम्भ करने की मन में आने लगती है । विभिन्न कार्यों  के बोझ से वह इतना त्रस्त है कि एक काम को करते वक्त ही वह किसी दूसरे कार्य के बारे में सोचता रहता है । इस कारण से वह किसी भी एक कार्य को करते हुए उसमे पूर्णता नहीं ला सकता । किसी भी कार्य को करते हुए उसके उद्देश्य से वह कोसों दूर ही रहता है । अपनी असफलता के लिए वह कभी किसी को ,कभी भाग्य को और यहाँ तक कि कभी कभी ईश्वर तक को दोषी ठहरा देता है । क्या उसका ऐसा मानना उचित है ?
                              व्यक्ति की कामनाएं और इच्छाएं इतना विस्तार पा चुकी है और आगे बढती ही जा रही है । ऐसे में उसके जीवन में संतुष्टि की कल्पना करना मृग मरीचिका ही है ।जब व्यक्ति के मन में इन के कारण इतनी उठापठक चल रही हो तो ऐसे में भावना के लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है ? जब तक मन में भावना का बीज अंकुरित नहीं होगा,व्यक्ति शांति के लिए तडपता रहेगा । हमारे मन में अच्छी भावनाएं जन्म ले,हम अपने द्वारा किये जा रहे कार्यों से सफलता के सोपान चढते रहें इसके लिए आवश्यक है कि हमारी आकांक्षाये इस तन को लेकर न हो,इस मन को संतुष्ट करने के लिए न हो,इस धन को येन केन प्रकारेण अर्जित करना ही हमारे जीवन का उद्देश्य न बने । तभी हम भाव प्रधान हो सकते हैं । किसी को दुखी देखकर अगर आप विचलित नहीं होते तो आप भाव शून्य हैं । अगर आप किसी बच्चे को अकेले में रोता हुआ देखें और आप उसके पास जाकर स्नेहिल हाथ उसके सिर पर नहीं रख सकते तो आप भाव शून्य है ।
                          आप भाव प्रधान कैसे हो सकते हैं ?भाव प्रधान होना बड़ा ही आसान है |जब मन से केवल आप स्वयं के बारे में सोचना बंद कर देंगे और आपकी तरह ही सबको देखने लगोगे,आपमें भावना का अंकुर स्फुटित हो जायेगा |अपने पराये का भेद ही व्यक्ति को भावनाशून्य बना देता है |फिर ऐसा व्यक्ति केवल स्वार्थ पूर्ति में ही लगा रहता है |इसी स्वार्थ के कारण वह परमात्मा से प्रार्थना करते समय भी मन ही मन अपनी स्वार्थ पूर्ति की सोचता रहता है | ऐसी प्रार्थना फिर स्वीकार करने योग्य नहीं रहती |    
                        मन को भावना प्रधान बना ले आपकी परमात्मा से की जा रही प्रार्थना भी भाव प्रधान हो जाएगी । तब आपकी आवाज और मन की आवाज एक हो जाएगी । जो कुछ भी आप मुंह से बोलेंगे वही शब्द आपके भीतर भी होंगे । दोनों के बीच किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होगा । आपकी भाव प्रधान प्रार्थना ही परमात्मा तक पहुँच सकती है ।
                                                      || हरिः शरणम् ||

Friday, May 30, 2014

भावशून्य प्रार्थना |

                                 प्रार्थनाओं का क्या प्रभाव या परिणाम होता है ,यह तो मुझे  नहीं मालूम । परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि भाव शून्य प्रार्थना का कोई महत्त्व  नहीं होता है । आज के इस युग में भावना प्रधान कुछ भी नहीं रह गया है । इस भावहीनता के कारण  ही आज मनुष्य एक तनावपूर्ण जिन्दगी जीने को मज़बूर है । हम  भावनाओं से इतना दूर क्यों होते जा रहे हैं ?क्यों हमारी जुबान महत्वहीन होती जा रही है?क्यों आज हम एक दूसरे की बातों पर अविश्वास करने लगे हैं ?ऐसे में हम कैसे  विश्वास कर सकते हैं कि हमारी भावहीन प्रार्थना को परमात्मा स्वीकार कर ही लेगा ?
                         आज सुबह मैं अपनी दिनचर्या के अनुरूप समाचार पत्र पढ़ रहा था । एक छोटे से कॉलम में छपी खबर पर निगाह अटक गई । समाचार था कि एक कोर्ट के न्यायाधीश ने न्यायालय की अवमानना के अपराध में एक वकील को एक माह की सजा सुनाते हुए जेल भेज दिया ,बावजूद इसके कि वकील ने न्यायालय की अवमानना को स्वीकार करते हुए लिखित में क्षमा भी मांग ली थी । माननीय न्यायाधीश ने अपने फैसले ,में लिखा है कि लिखित में क्षमा याचना करने से कुछ भी नहीं होता जब तक कि दिल से यह स्वीकार नहीं किया जाये कि मुझसे गलती हुई है और इस गलती के प्रायश्चित के तौर पर मुझे ह्रदय से क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए ।
                        यह सब पढ़कर मैं बड़ा ही  खुश हुआ कि न्यायलय भी भावना को तथ्यों और सबूतों से अधिक महत्त्व देता है । नहीं तो आजकल न्यायालयों में भी ऐसी बातें महज औपचारिकताएं बनती जा रही है ।माननीय  न्यायाधीश का यह कहना एकदम सत्य है कि क्षमा जब तक ह्रदय से ,दिल से,भीतरसे नहीं मांगी जाती और बिना अपराध बोध स्वीकार किये लिखित में मांगी जाती  है तब ऐसी  क्षमा भी महत्वहीन है । ऐसी क्षमा प्रार्थना स्वीकार करने योग्य नहीं है । इस केस में न्यायाधीश का यह कहना उचित है कि अपराधबोध हुए बगैर औपचारिकतावश लिखित में की गई क्षमा प्रार्थना का कोई महत्त्व नहीं है ।
                             प्रतिदिन हम परमात्मा की आरती करते हैं । आरती अर्थात आर्त भाव से परमात्मा की प्रार्थना करना । पर क्या हमारी प्रार्थना में भाव होता है ?हम कहते हैं कि "तन,मन,धन सब कुछ है तेरा" । क्या ऐसा कहते समय हमारा भाव भी इसी अनुरूप होता है ?क्या परमात्मा आकर एक दिन हमसे हमारा सब कुछ ले जाये तो क्या हम अपना सर्वस्व देने को तैयार हैं ?कहना और करना ,इन दोनों में जब तक अंतर रहता है तब तक हमारी प्रार्थना भावशून्य ही रहेगी और भावशून्य प्रार्थना का महत्त्व रत्ती भर भी नहीं होता । हमें यह निश्चित करना होगा कि हमारे तन,मन और धन का हमारे लिए क्या और कैसा महत्त्व है,तभी हम अपनी प्रार्थना में भाव पैदा कर सकते हैं ,अन्यथा नहीं ।
                                          ॥ हरिः शरणम् ॥  

Thursday, May 29, 2014

सत्य - असत्य |-३१ समापन किश्त |

                                         सुख को प्राप्त करने और दुःख से दूर रहने के लिए लोग परमात्मा से प्रार्थनाएं करते हैं । साथ ही साथ वे लोग परमात्मा के द्वारा बनाये नियमों पर न चलकर उनका उल्लंघन करते है । प्रार्थना के साथ यह उम्मीद भी रखते हैं कि परमात्मा उनकी मांगें पूरी करेगा । परमात्मा ऐसे व्यक्तियों की प्रार्थना पर कभी भी ध्यान नहीं देगा,यह मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ । जब परमात्मा इस पृथ्वी पर मनुज रूप में अवतार लेते है,तब वे भी अपने बनाये गए नियमों के पालन हेतु बाध्य होते हैं । ऐसे में कोई भी साधारण मनुष्य यह कैसे सोच सकता है कि वह इन नियमों के विरुद्ध जा भी सकता है । ऐसे व्यक्ति केवल दुखों को ही प्राप्त होते है । वे परमात्मा की लाख प्रार्थना कर ले , सपने में भी सुख प्राप्त नहीं कर सकते ।
                                         संसार के समस्त सुखों से भी ऊपर एक और सुख है । जिसे हम आनंद कहते हैं । सुख और दुःख तो परमात्मा के बनाये नियमों पर चलकर या उनका उल्लंघन कर प्राप्त कर सकते हैं परन्तु आनंद प्राप्त करना है तो फिर व्यक्ति को सुख-दुःख के अनुभव से भी ऊपर उठना होगा । जीवन का सत्य तो आनंद ही है,सुख नहीं । आनंद तो केवल परमात्मा से ही प्राप्त किया जा सकता है । परमात्मा का एक नाम सच्चिदानंदघन भी है । सत+चित्त+आनंद+घन=सच्चिदानंदघन। वह सत भी है,चित्त भी है और आनंद का भंडार (घन,घनीभूत) है । परमात्मा को प्राप्त किये बिना न तो सत्य प्राप्त किया जा सकता और न ही आनंद । अतः आवश्यकता है कि हम सर्वस्व की प्राप्ति के लिए परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास करें।
                              अब प्रश्न यह उठता है कि परमात्मा को पाने के लिए हमें क्या करना होगा ?  परमात्मा ही सत्य है ,परमात्मा ही आनंद है अतः सत्य और आनंद को प्राप्त करने का रास्ता भी वही है जो परमात्मा को प्राप्त करने का है । इनको प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम हमें परमात्मा के द्वारा स्थापित प्रकृति के नियमों को स्वीकार करते हुए उनपर चलने का संकल्प करना होगा । यह आध्यात्मिकता की प्रारम्भिक अवस्था है । इसके बाद कारण दृष्टि का विकास करना होगा जो आपको साक्षात् परमात्मा के दर्शन कराएगा । जब इस अवस्था को प्राप्त कर लेंगे वह आध्यात्मिकता की उच्च अवस्था होती है । यह सब लिखने और पढ़ने में आसान अवश्य लगता है परन्तु आसानी से इस अवस्था को प्राप्त नहीं किया जा सकता । दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्ति बार बार सांसारिकता की तरफ वापिस लौट जाने का प्रयास करता है । अगर व्यक्ति मन के इस भुलावे में न आये तो फिर दूसरी अवस्था तक व्यक्ति कई प्रयास से पहुँच सकता है । परन्तु अभी भी व्यक्ति परमात्मा से दूर है,सत्य से दूर है । जब व्यक्ति अपने आप के होने को ही भूला बैठता है तब वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है ,तब उसमे और परमात्मा में कोई विभिन्नता नहीं रहती । इस अवस्था को प्राप्त कर ही हनुमान कह सके कि" हे श्री राम,जो आप हैं वही मैं हूँ । " यही सत्य है,यही आनंद है और यही परमात्मा भी ।
                          अभी भी सत्य और असत्य के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है,परन्तु इस अल्पबुद्धि व्यक्ति में संकलन करने की क्षमता इतनी ही है । सत्य भी यही है । परमात्मा अपरिमेय है। इसे मनुष्य अपने ज्ञान और बुद्धि से नहीं माप सकता ।
                                      || हरिः शरणम् ||    

Wednesday, May 28, 2014

सत्य - असत्य |-३०

                                    जब समस्त पूर्व निर्धारित नियम ही सत्य है ,तो फिर यहाँ  असत्य कुछ भी नहीं है । परमात्मा ने इस संसार को सुचारू रूप से चलाने के लिए कुछ नियम बनाये है । वे सभी नियम इस सृष्टि के प्रारंभ से ही समस्त पर समान रूप से लागू हैं । इन नियमों की यह विशेषता है कि किसी भी परिस्थिति में यह नियम परिवर्तित नहीं होते हैं और न ही किये जा सकते हैं । किसी एक नियम को आप अगर झुठला भी रहे हैं तो वह भी किसी प्रकृति के ही ऐसे किसी अन्य नियम के अंतर्गत ही किया जा सकता है । उससे वह नियम असत्य नहीं हो जाता । जैसे भारतीय संविधान और दंडसंहिता में अनेक नियम बने हुए है । जिन्हें धाराएँ कहा जाता है । किसी एक धारा को दूसरी धारा से कुछ संशोधित किया जा सकता है । जैसे राजकीय सेवा के लिए कुछ नियम बने हुए हैं,उनमे एक नियम है -सरकारी सेवा में आने की अधिकत्तम आयु सीमा । फिर आगे एक नियम और आता है जिसमे कुछ वर्गों को इस अधिकत्तम आयु सीमा में पांच वर्ष की छूट दी गई है । इस नियम के होने का अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि इससे पहले वाला नियम असत्य है । दोनों ही नियम सत्य है ।
                            प्रकृति के नियमों का एक उदाहरण दूं । जल की गति को अधोगति कहा जाता है । यह प्रकृति का नियम है कि जल को अगर स्वतंत्र रूप से छोड़ दिया जाय तो वह ऊपर से नीचे की ओर गति करेगा । यह जल की गति का नियम सृष्टि के प्रारंभ से चला आ रहा है और इसमे आज तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । इसलिए इसे सत्य कहा गया है । जल को विद्युत् मशीन से ऊपर की गति प्रदान की जा सकती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जल का अधोगति नियम असत्य है ।  इससे पहले वाला नियम असत्य नहीं हो जाता । दूसरा नियम कहता है कि बाह्य बल से किसी भी वस्तु को गति दी जा सकती है । ज्योंही यह बाह्य बल समाप्त होगा ,जल पुनः अपनी प्राकृतिक गति प्राप्त कर ऊपर से नीचे की ओर बहने लगेगा । इस प्रकार जो भी प्रकृति के नियम हैं,वे  शाश्वत और सत्य है ,असत्य कुछ भी नहीं है । मानव को इन नियमों का हर हालत में पालन करना ही पड़ता है । इन नियमों के विरुद्ध जो भी चलने का प्रयास करता है वह दुःख को प्राप्त होता है । जो व्यक्ति नियमों का पालन करते हुए ,एक नियम से दूसरे नियम को अधिक प्रभावी या निष्प्रभावी करने की कला जान कर उपयोग में लेता है ,उसका जीवन सदैव सुखपूर्वक चलता रहता है ।
                      हम सदैव ही  परमात्मा से अपने सुख की प्रार्थना करते हैं । परमात्मा ने हमें सुख प्राप्त करने के लिए प्रकृति के नियम दिए हैं । उन नियमों पर चलकर ही हम सुख प्राप्त कर सकते हैं । परमात्मा के बनाये नियमों के विरुद्ध जाकर आज तक किसी को अपने जीवन में सुख और शांति नसीब नहीं हुई है ,चाहे वह मंदिरों,मस्जिदों और गुरुद्वारों में घंटों बैठकर परमात्मा से कितनी भी लम्बी प्रार्थनाएं कर ले ।प्रकृति और परमात्मा के बनाये गए शाश्वत नियम ही सत्य है । अतः कारण दृष्टि यही कहती है कि जब सब कुछ उस परमात्मा के ही अंश है और परमात्मा भी अपने बनाये नियमों के विरुद्ध नहीं जाता ,तो फिर उन नियमों की पालना करना ही सच्ची आध्यात्मिकता है । जब हम अध्यात्म को पूर्ण रूप से जान लेते हैं तो फिर सब कुछ सत्य होना ही समझ में आता है ।
क्रमशः
                                       || हरिः शरणम् || 

Tuesday, May 27, 2014

सत्य - असत्य |-२९

                                 कारण दृष्टि ही मुक्ति का मार्ग है । कारण दृष्टि आपको अपने अस्तित्व के ,आपके स्वयं के होने के ,भ्रम से मुक्त कर देती है । जिस समय आप अपने होने के भ्रम से स्वतंत्र हो जाते हैं तभी आपका मृत्यु से भी भय जाता रहता है । मृत्यु से व्यक्ति इतना अधिक भयभीत रहने लगा है कि उसके जीवन से आनंद तिरोहित हो चूका है । इस प्रकार मर मर कर जीने से तो बेहतर है कि मृत्यु समय से पूर्व आ जाये । लेकिन मृत्यु का आगमन भी आपको पुनर्जन्म से मुक्त नहीं कर सकता । जब आप बार बार जन्म लेते ही हैं तब फिर मृत्यु से भी भय क्यों ? इसका भी कारण वही है -दृष्टि का । दृष्टि का अंतर ही आपको सुख-दुःख की ओर धकेलता है ,आनंद से सदैव दूर रखता है। आपका जीवन आनंद उठाने के लिए है,सुख-दुःख झेलने के लिए नहीं ।
                              स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि आपको सुख-दुःख और जन्म-मरण के दुष्चक्र से बाहर ही नहीं आने देगी । इस जीवन का आनंद उठाना तो आपकी कल्पना से भी बाहर होगा । जीवन परमात्मा ने आनंदित होने के लिए दिया है,न कि सुख-दुःख झेलने के लिए । झेलना मैं इसलिए कहता हूँ कि व्यक्ति न तो सुख पाकर संतुष्ट होता है और न ही दुःख के आगमन का आह्वान करता है । सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह है । सुख के साथ सदैव ही दुःख जुड़ा होता है । इसका ज्ञान हममें से प्रत्येक को है । इसी कारण से हम लोग जब सुख आता है तब भी उसका मज़ा पूरा नहीं ले पाते क्योंकि हमें सुख भोगते समय भी उस सुख के पीछे भविष्य में  आने वाले दुःख की परछाई खड़ी नज़र आती है । स्थूल दृष्टि के अनुसार हनुमान एक बन्दर और श्रीराम एक मनुष्य थे और सूक्ष्म दृष्टि के अनुसार सेवक और प्रभु । दोनों ही प्रकार से होने पर सुख-दुःख झेलना  ही पड़ता है । बन्दर होने और सेवक होने के अपने सुख-दुःख हैं और मनुष्य और प्रभु होने के अपने । श्रीराम इसी दृष्टि के कारण सीता हरण होने पर विलाप करते हैं,लक्ष्मण के मूर्छित होने पर दुखी होते हैं । हनुमान का व्यवहार भी इसी अनुरूप था । जानकी की खोज कर वे प्रसन्नता अनुभव करते है और जानकी को दुखी देखकर दुखी भी हो जाते हैं ।
                              प्रश्न यही उठता है कि जब श्रीराम साक्षात् परम-ब्रह्म ही थे,फिर उन्होने सुख-दुःख का अनुभव क्यों किया?प्रश्न का उठना शत प्रतिशत सत्य है।  दृष्टि की भी अपनी एक प्रकृति होती है ,उसी अनुसार उस व्यक्ति का आचरण होता है । जब श्रीराम ने इस धरा पर एक मानव के रूप में जन्म लिया है तो उन्हें भी अपने बनाये नियमों के अनुसार ही चलना था । परमात्मा होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य की भूमिका में जीवन जीते हुए वे मनुष्य की दृष्टि के अनुसार कार्य न करे । उन्हें भी मुक्त होने के लिए कारण दृष्टि का ही उपयोग करना पड़ा । लगभग ऐसा ही आप श्रीकृष्ण के जीवन में देख सकते है । गीता में तो वे एकदम स्पष्ट कहते हैं कि "मेरे लिए कोई भी कर्म नहीं है फिर भी मनुष्य रूप में आकर मुझे भी सब कर्म करने पड़ते हैं। अगर मैं कर्म न करूं तो मेरे को देखते हुए सभी मनुष्य भी कर्म करना बंद कर सकते है । कर्म करना प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है । इस कारण से मनुष्य रूप में जन्म लेकर मुझे भी सब कर्म करने पड़ते हैं ।"
                                इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि परमात्मा ने सबके लिए नियम बना रखे हैं । उन नियमों के अनुसार चलना ही जीवन जीने की आदर्श कला है । आपकी दृष्टि चाहे कोई सी भी हो,परमात्मा द्वारा स्थापित नियम ही सर्वोपरि है और सत्य भी ।
क्रमशः
                                   || हरिः शरणम् || 

Monday, May 26, 2014

सत्य - असत्य |-२८

                                         अहंकार व्यक्ति को तभी पैदा होता है जब वह अपने होने को ही वास्तविकता समझ बैठता है । स्वयं का होना स्थूल और सूक्ष्म दृष्टि से तो सत्य है परन्तु कारण दृष्टि से नहीं । कारण दृष्टि यह कहती है कि जो भी है ,सब परमात्मा ही है । जिस प्रकार आप परमात्मा के एक अंश है उसी प्रकार संसार में जो भी आप देखते हैं वह भी परमात्मा की ही देन है । उन सब में भी परमात्मा ही निवास करता है । जब आप भी वही है,सब भी वही है और अन्य में भी वही है अर्थात जब सब कुछ वही है तो फिर आपका उससे अलग होना कैसे हो सकता है ?जब तक आप अपने आप को उससे अलग मानते रहोगे,अहंकार कभी भी समाप्त नहीं होगा । जिस दिन सब कुछ में उसे और उसके कारण से होना मानने लगोगे ,यह अहंकार तुरंत ही तिरोहित हो जायेगा । अहंकार के जाते ही आपका "मैं"भी चला जायेगा और जो कुछ भी शेष बचेगा वही पूर्ण सत्य होगा ।
                        गीता के विभूति योग नामक अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया है । अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि यहाँ जो कुछ भी अच्छा-बुरा है,वह सब मैं ही हूँ । वे तो  यहाँ तक कह देते हैं कि छल करने वालों में मैं जुआ हूँ । वे दैत्यों में अपने आप को प्रह्लाद कहते हैं ,पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ । अंत में तो वे यहाँ तक कह देते हैं कि-जो भी विभूतियुक्त,ऐश्वर्ययुक्त , कान्ति युक्त और शक्तियुक्त वस्तु है,उन सबको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान अर्थात श्रीकृष्ण कहना चाहते हैं कि मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योग शक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ । जब सभी और वह एक मात्र परमात्मा ही है तो फिर असत्य का स्थान ही कहाँ रहता है ?इसका एक ही अर्थ मेरे समझ में  आता है ,वह है कि परमात्मा ही सत्य है और सब ओर वही है ,दृश्यमान में भी और अदृश्य में भी ।
                            यह ज्ञान सब लोगों को है परन्तु सारा ज्ञान केवल किताबी ज्ञान ही है । जब बात परिवार,परिजनों और स्वार्थ की आती है ,तब यह ज्ञान बहुत दूर कही पीछे छूट जाता है । मेरे कहने का अर्थ यह है कि सब कुछ जानते और समझते हुए भी इस ज्ञान का उपयोग हम अपनी निजी जिंदगी में नहीं करना चाहते । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमें परमात्मा पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं है । मैं जानता हूँ कि आप मेरी इस बात से सहमत कदापि नहीं होंगे क्योंकि वास्तविक सत्य से मुंह फेरना मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है । परन्तु आपके या मेरे मानने अथवा ना मानने से फर्क ही क्या पड़ता है ? सत्य तो सदैव  सत्य ही रहेगा । सत्य तो केवल परमात्मा ही है और वह कभी भी नहीं बदलता ।
क्रमशः
                                       ||  हरिः शरणम्  ||

Sunday, May 25, 2014

सत्य - असत्य |-२७

                                  जब व्यक्ति की मनोदशा परिवर्तित हो जाती है ,तब उसका  ऊँचाइयों की ओर उठना प्रारम्भ  हो जाता है |सांसारिकता के कम सत्य से आध्यात्मिकता के पूर्ण सत्य की ओर |स्थूल यहाँ आकर महत्वहीन हो जाता है और सूक्ष्म तो इतना सूक्ष्म है कि उसका होना या ना होना कोई महत्त्व नहीं रखता |सूक्ष्म दृष्टि व्यक्ति को "मैं"से ऊपर उठाते हुए "सब"की तरफ ले जाती है |फिर भी मात्र इतनी सूक्ष्म दृष्टि भी आपको पूर्ण सत्य का ज्ञान नहीं करवा सकती |जहाँ पहले "मैं"था वहां अब "हम" या "सब"है|परन्तु यह भी पूर्ण सत्य नहीं है |यह वैसा ही सत्य है जैसे कुर्सी का दिखना तो बंद हो गया परन्तु प्लास्टिक या लकड़ी अभी भी दिखाई पड़ रही है |लकड़ी या प्लास्टिक का दिखाई देते रहना भी पूर्ण सत्य नहीं है | हनुमान की सूक्ष्म दृष्टि अभी भी प्रभु और सेवक को देख रही है |हाँ,यह एक मनुष्य और बन्दर को देखने से ज्यादा सत्य है ,परन्तु पूर्ण सत्य से अभी भी कोसों दूर है | जब तक प्रभु और सेवक या प्लास्टिक और लकड़ी दिखाई देना भी समाप्त नहीं हो जाता ,तब तक सत्य कैसे  पूर्ण हो सकता है ?
                       पूर्ण सत्य को जानने के लिए आवश्यक है कि हम अपनी दृष्टि को सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म करें |हम लकड़ी या प्लास्टिक,प्रभु या सेवक होने का कारण जानने का प्रयास करें |ठीक है,हनुमान एक सेवक के रूप में है और भगवान् श्रीराम प्रभु के रूप में |परन्तु वास्तविकता में इनके ऐसा हो जाने के पीछे क्या कारण है ?जो भी कारण है ,वही पूर्ण सत्य है |इस प्रकार देखने की कला को ही कारण दृष्टि कहते हैं |इसके लिए हमें ज्ञान और विवेक की आवश्यकता होती है |ज्ञान और विवेक ही हमें कारण दृष्टि उपलब्ध करवा सकता है |भौतिक दृष्टि के लिए भौतिक आँखों की आवश्यकता होती है जब कि कारण दृष्टि के लिए आंतरिक चक्षु की |जब तक व्यक्ति प्रत्येक को भौतिक रूप से देखना बंद नहीं करेगा तब तक उसकी दृष्टि स्थूल ही बनी रहेगी |भौतिकता से ऊपर उठते ही सूक्ष्म दृष्टि का आगमन हो जाता है और आगे बढ़ते हुए व्यक्ति कारण दृष्टि को उपलब्ध हो जाता है |
                            यह कारण दृष्टि व्यक्ति को उस कारण से अवगत कराती है ,जिसकी वजह से यह सारा ब्रह्माण्ड संचालित हो रहा है |जब इस पूर्ण सत्य को व्यक्ति आत्मसात कर लेता है तब उसका अहंकार अर्थात  "मैं" भी पूर्णतया समाप्त हो जाता है |यह "मैं"ही व्यक्ति को स्थूल दृष्टि से सूक्ष्म दृष्टि की ओर बढ़ने से रोक देता है |अतः कारण दृष्टि को उपलब्ध होने के लिए अहंकार की समाप्ति आवश्यक है |तथा इस अहंकार की समाप्ति के लिए ज्ञान होना आवश्यक है |
क्रमशः
                                               || हरिः शरणम् ||

Saturday, May 24, 2014

सत्य - असत्य |-२६

                                          स्थूल दृष्टि से देखना भी सत्य को देखना है । यह सत्य उसी प्रकार है जिस प्रकार प्रत्येक पत्थर में ईश्वर होना एक सत्य है । अवांछित पत्थर को काटकर ही हम उसमे ईश्वर की मूरत देख पाते हैं उसी प्रकार स्थूल दृष्टि में आनेवाले कई अवांछित दृश्यों को अलग कर हम सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं । स्थूल दृष्टि से देखने पर आपको हनुमान एक बन्दर ही नजर आएंगे और श्रीराम एक मानव। परन्तु क्या इन दोनों के बारे में स्थूल दृष्टि से जो हम देख रहे हैं,मात्र वही एक सत्य है । मैं आपको पुनः एक बार याद दिला दूँ कि वास्तविकता में सत्य की कोई सीमा नहीं होती है । सत्य को किसी एक घेरे में बंद नहीं किया जा सकता । इसी कारण से चारों ओर हमें जो कुछ भी नज़र आ रहा है ,सब कुछ सत्य ही है । जैसे गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -"नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ॥ २/१६॥ "अर्थात असत्य की कहीं कोई सत्ता नहीं है और सत्य का कहीं भी अभाव नहीं है ।
                                        परन्तु हनुमान का एक वानर होना और भगवान श्रीराम का एक मानव होना भी ,मात्र इतना होना भी पूर्ण सत्य नहीं है । पूर्ण सत्य को पाने के लिए दृष्टि को और सूक्ष्म करने की आवश्यकता है । सूक्ष्म दृष्टि से देखेंगे तो आप पाएंगे कि हनुमान एक बन्दर होने के साथ साथ एक सेवक भी हैं और श्रीराम मनुष्य होने के साथ साथ प्रभु की भूमिका में भी है । सत्य दोनों होना ही है । परन्तु प्रभु और सेवक होना ज्यादा सत्य है ,मनुष्य और बन्दर होने की तुलना में।यह सब संभव तब होता है जब आपकी दृष्टि भौतिकता से ऊपर उठकर कुछ अन्य को भी देखने की कोशिश करे ।
                                   इस बात को मैं एक अन्य उदाहरण से स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ । आपके घर में कुर्सियां जरूर होगी । स्थूल दृष्टि से देखने पर आपको सभी कुर्सियां ,कुर्सियां ही नज़र आएगी । जब इनमें से कोई एक कुर्सी टूट जाती है तब क्या फिर भी वह कुर्सी ही कहलाती है? नहीं,बिलकुल नहीं । वह अब मात्र प्लास्टिक या लकड़ी हो जाती है । क्या टूटने से पहले वह लकड़ी या प्लास्टिक नहीं थी?जी हाँ,वह पहले भी लकड़ी या प्लास्टिक ही थी और अब भी वही है । स्थूल दृष्टि से वह कुर्सी पहले कुर्सी थी और अब प्लास्टिक या लकड़ी । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो वह पहले भी लकड़ी या प्लास्टिक थी और अब भी वही है । स्थूल दृष्टि की मानोगे तो कुर्सी के टूटने का दुःख होगा और सूक्ष्म दृष्टि की मानोगे तो लकड़ी या प्लास्टिक के स्थूल के आकार परिवतन का क्या दुःख मनाना ?  ऐसा दृष्टि परिवर्तन ,आपकी सम्पूर्ण मनो दशा को ही परिवर्तित कर देता है ।
क्रमशः
                                              || हरिः शरणम् ||
                                                

Friday, May 23, 2014

सत्य असत्य |-२५

                                   हनुमानजी और श्रीराम के प्रसंग में जिन तीन प्रकार की दृष्टियों का उल्लेख हुआ है वही सत्य और असत्य का आधार है । अंतर केवल दृष्टि का है अन्यथा तो यहाँ वहॉँ सब ओर सत्य ही सत्य है । आज से हम प्रत्येक दृष्टि की संक्षेप में चर्चा करेँगे जिससे हम सत्य के कुछ ओर पास पहुँच सकेंगे । संसार में दृष्टि प्रत्येक प्राणी की अपनी अपनी होती है । अंतर केवल गुणात्मक होता है,मात्रात्मक नहीं । मात्रात्मक रूप से इसलिए नहीं क्योंकि सबके पास दृष्टि के लिये आवश्यक दोनों साधन-मस्तिष्क और आँख, समान रूप से उपस्थित होते हैं । परन्तु मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों के पास मन का अभाव होता है और मस्तिष्क भी कम विकसित होता है ,जिससे बुद्धि उतनी तीव्र नहीँ होती ।इस स्थिति में जो दृष्टि बनती है उसे स्थूल दृष्टि कहा जाता है । इस दृष्टि में केवल जो दृश्य भौतिक रूप से आँख द्वारा देखना सम्भव होता है ,वही दृश्य उस प्राणी द्वारा देखा जता है ।  इसको हनुमान ने स्पष्ट किया है । भगवान श्रीराम को उन्होंने कहा  कि अगर स्थूल दृष्टि से देखा जाये तो मैं एक वानर हूँ और आप एक मनुष्य ।
                              स्थूल दृष्टि से जो कुछ भी दिखाई देता है वह सत्य ही होता है । परन्तु यह सत्य कम प्रकाश की तरह का होता है । यह असत्य कदापि नहीं है ,है यह भी सत्य । परन्तु इसे आप सत्य की एक झलक मात्र कह सकते हैं । जैसे कम प्रकाश में हम स्पष्ट नहीं देख पाते उसी प्रकार सत्य को हम स्थूल दृष्टि से सही सही नहीं समझ पाते हैं ।मनुष्य और अन्य प्राणियों में मूलभूत अंतर इस दृष्टि का ही है । अन्य जीवों में प्रायः स्थूल दृष्टि ही होती है ,कुछ प्राणियों में सूक्ष्म दृष्टि भी होती है परन्तु मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सब प्राणियों में कारण दृष्टि का पूर्णतया अभाव होता है । वे यह जानते हैं कि स्थूल रूप से वे एक विशेष प्रकार के जानवर है और मनुष्य उनसे अलग किस्म का  प्राणी है ।
                               स्थूल दृष्टि केवल स्थूल शरीर को ही देख पाती  है । स्थूल दृष्टि किसी के भी अंतर्मन तक नहीं पहुँच पाती । यह भौतिक शरीर जिन पांच तत्वों से बना होता है ,उन सब की प्रकृति भी स्थूल ही होती है । आँख और मस्तिष्क व उसमे अवस्थित बुद्धि की प्रकृति भी स्थूल ही होती है ।अतः कहा जा सकता है कि स्थूल के द्वारा स्थूल को देखा जाना ही स्थूल दृष्टि है । जो कुछ भी स्थूल दृष्टि से देखा जाता है वह स्थूल रूप से,भौतिक रूप से और सांसारिकता के रूप से सत्य तो है ही । आज के युग में प्रायः प्रत्येक व्यक्ति स्थूल दृष्टि को ही अत्यधिक महत्त्व देता है । इसी कारण से भौतिकता का प्रभाव दिन प्रतिदिन निरंतर बढ़ता ही जा रहा है । चूंकि यह असत्य तो है नहीं ,इसलिए आलोचना भी नहीं की जा सकती । स्थूल दृष्टि और स्थूल तत्व तथा स्थूल तथ्य सब उस परम ब्रह्म परमात्मा की ही देन है ,इस तथ्य को स्वीकारना ही सत्यको स्वीकारना है । इस स्थूल सत्य के साथ एक आध्यात्मिक व्यक्ति कैसे सामंजस्य बैठाते हुए अपने जीवन को अच्छी प्रकार जी सकता है,यह कला सीख लेना ही सच्चा ज्ञान है ।
क्रमशः
                                       || हरिः शरणम् ||   

Thursday, May 22, 2014

सत्य - असत्य |-२४

                              दृष्टि का नियंत्रण जब मन के पास होता है तब व्यक्ति दृश्य और उसका विश्लेषण अपने विवेकानुसार न करके मन की इच्छानुसार करता है |यही सत्य और असत्य का भेद है | सपना व्यक्ति मन की इच्छानुसार देखता है ,अपने विवेकानुसार नहीं |इसी कारण से व्यक्ति सपने को असत्य कह देता है |परन्तु सपना असत्य नहीं है क्योंकि मन की भावना को ,अपने तरीके से ,स्वयं को ही इस भावना से अवगत कराने का नाम ही सपना है | इस कारण से सपना भी सत्य है ,असत्य नहीं | असत्य तो उसे देखने की दृष्टि बना देती है |जब तक मन में यह भावना नहीं होगी कि मेरी कोई भी कामना अधूरी न रहे ,सपना देखना संभव ही नहीं होगा । संसार में सपने प्रत्येक के होते हैं और उनकी अभिव्यक्ति और पूर्णता जब तक  वास्तविक जीवन में नहीं होगी तब तक सपने चलते रहेंगे । एक सपना पूरा होते ही नए सपने का जन्म हो जाता है । इच्छाओं के कारण भिखारी को राजा बनने के सपने आते हैं और सबकुछ समाप्त हो जाने के भय से राजा को भिखारी हो जाने के सपने आते हैं ,जैसा कि राजा जनक के साथ हुआ था । सपनों के जाल से निकलने के लिए इच्छाओं और कामनाओं के त्याग के साथ साथ भय का त्याग भी आवश्यक है । परमात्मा की तरफ चलने पर ही आप इन दोनों से मुक्ति पा सकते हैं ।
                          इच्छाओं,कामनाओं और भय से मुक्ति के लिए प्रथमतः ज्ञान आवश्यक है । ज्ञान आपको इन सब से मुक्ति दिला सकता है । ज्ञान वह अग्नि है जो आपके सब कर्मों तक को भस्मीभूत कर देती है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान की महिमा इसी रूप में स्पष्ट की है ।
                    यथैधांंसि समिध्दोSग्निर्भस्मसात्कुरुतेSर्जुन।
                    ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ गीता ४/३७ ॥
अर्थात,हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि समस्त इंधनोंको भस्ममय कर देती है ,वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है ।
                          ज्ञान व्यक्ति को एक व्यापक दृष्टि उपलब्ध करवाता है । दृष्टि में परिवर्तन के फलस्वरूप ही आप सत्य को पहचान सकते हैं अन्यथा जो भी सत्य आप देख पाते हैं उसी को वास्तविक सत्य मानते हुए स्वीकार करना होगा । आप आज जो भी देख रहे हैं वह भी सत्य है परन्तु यह सत्य मात्र उस अंधकार के समान है जिसे ज्ञानी पुरुष कम प्रकाश की उपस्थिति कहते है । पूर्ण सत्य जानने के लिए आपको अंधकार अर्थात कम प्रकाश से अधिक प्रकाश की ओर जाना होगा । तभी आप वास्तविक सत्य तक पहुँच पाएंगे । आपकी दृष्टि भी जब हनुमानजी की तरह,स्थूल से कारण दृष्टि तक की यात्रा संपन्न कर लेगी तब आप पाएंगे कि चारों ओर सत्य ही सत्य है ।
क्रमशः
                                        || हरिः शरणम् || 

Wednesday, May 21, 2014

सत्य - असत्य |-२३

                        जिस प्रकार हनुमानजी ने भगवान श्रीराम के प्रश्न का उत्तर दिया,वह सत्य को ही प्रकाशित करने वाला है |हनुमान के उत्तर के तीन भाग है अर्थात श्रीराम और हनुमान कौन है और उनका आपस में क्या सम्बन्ध है, इसका उत्तर उन्होंने तीन बातों को ध्यान में रखते हुए दिया है |प्रथम-स्थूल दृष्टि ,दूसरी सूक्ष्म दृष्टि और तीसरी कारण दृष्टि |
              किसी वस्तु,विषय या परिदृश्य को देखने का नाम ही दृष्टि है |दृष्टि से देखे गए घटनाक्रम को ही सत्य माना गया है |इसीलिए कानों सुनी से आँखों देखी का महत्व अधिक माना गया है | कानों सुना असत्य भी हो सकता है,जैसा कि आचार्य द्रोण के साथ हुआ था परन्तु आँखों की दृष्टि से देखा गया असत्य नहीं हो सकता |आँखों से दृष्टि किस प्रकार और कहाँ तक जाती है,दृश्य उसी प्रकार देखा जाता है |किसी भी दृश्य का अवलोकन करने के लिए दो साधनों की आवश्यकता होती है -प्रथम ,प्रतिबिम्ब बनाने वाले साधन की |प्रतिबिम्ब बनाने का साधन इस मनुष्य शरीर में आँख है,जो पांच ज्ञानेन्द्रियों में से एक है | दूसरा साधन है,मस्तिष्क |मस्तिष्क उस प्रतिबिम्ब का विश्लेषण करता है |मनुष्य का मस्तिष्क संसार में अन्य सभी प्राणियों के मस्तिष्क से अधिक विकसित है |एक तीसरा अन्य माध्यम या साधन भी है जो अपरोक्ष रूप से दृश्य और दृष्टि को प्रभावित करता है ,वह है मन |मन एक ऐसा माध्यम है जो कभी आँख पर हावी हो जाता है और कभी मस्तिष्क में स्थित बुद्धि पर |जब मन आँख पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है तब व्यक्ति वही दृश्य देखता है जो मन उसे दिखलाना चाहता है |हालाँकि आँख के दृष्टिपटल पर प्रतिबिम्ब प्रकृति के नियमों के अनुसार सत्य बनता है परन्तु मन इस प्रतिबिम्ब के सही संकेत मस्तिष्क तक पहुँचने से रोक देता है | मेरे कहने का अर्थ यह है कि मस्तिष्क तक सही संकेत उस प्रतिबिम्ब के नहीं पहुँच पाते | ऐसे में उस प्रतिबिम्ब का सही विश्लेषण नहीं हो पाता | इसी प्रकार जब मन ,व्यक्ति के मस्तिष्क पर हावी होता है,बुद्धि को अधिग्रहित कर लेता है ,तब प्रतिबिम्ब के संकेत आँख के दृष्टिपटल से मस्तिष्क तक तो सत्य ही पहुंचते हैं परन्तु बुद्धि उसका आकलन और विश्लेषण सही नहीं कर पाती है |
                  मन का इन दोनों साधनों पर प्रभाव व्यक्ति की मनोदशा प्रदर्शित करता है |जब तक व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं होगा तब तक उसकी दृष्टि सही नहीं हो सकती | ऐसे में सब कुछ सत्य होते हुए भी असत्य प्रतीत हो सकता है |सब कुछ सत्य होने के बावजूद भी मन इसे असत्य कर देता है |इसी कारण से हमारे सनातन शास्त्रों ने मन पर नियंत्रण स्थापित करने को सबसे अधिक महत्त्व दिया है |मन पर नियंत्रण होते ही सब ओर सत्य ही सत्य नज़र आएगा क्योंकि सत्य के अतिरिक्त यहाँ कुछ अन्य है भी नहीं |
क्रमशः
                                       || हरिः शरणम् || 

Tuesday, May 20, 2014

सत्य - असत्य |-२२

                                         अध्यात्म-रामायण में एक प्रसंग आता है ,वह मैं आपके साथ बांटना चाहूँगा यह प्रसंग सत्य और असत्य के भ्रम के निवारण में सहायक सिद्ध होगा।वनवास समाप्ति के बाद भगवान श्रीराम अयोध्या लौट चुके थे। राज्याभिषेक हो गया था ।वनवास और लंका-युद्ध के सभी साथी वापिस अपने अपने स्थानों को लौट चुके थे । हनुमान के अति आग्रह करने पर भगवान ने उन्हें अपने पास सेवक के रूप में रहने को कह दिया था । दिन रात हनुमान भगवान श्रीराम और जानकी की सेवा में रत रहते थे ।  हनुमान ,राम के प्रिय भक्त हैं । अतिरिक्त समय में भगवान श्रीराम अपने भक्त को तात्विक ज्ञान देते रहते हैं ।
                                  एक बार ऐसे ही अतिरिक्त समय में भगवान श्रीराम और हनुमान बैठे बातें कर रहे थे । अचानक श्रीराम ने हनुमान से पूछा-"हनुमान ! एक बात बताओ । तुम कौन हो और मैं कौन हूँ ?"हनुमान तो भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त ठहरे । वे भगवान के पूछने का निहितार्थ समझ गए । उन्होंने प्रश्न की गंभीरता को समझते हुए बड़ी ही शालीनता के साथ उत्तर दिया । हनुमान बोले-"भगवन ! अगर स्थूल दृष्टि से देखा जाये तो आप मानव हैं और मैं एक वानर । इस दृष्टि को अगर और सूक्ष्म करे अर्थात अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये,सूक्ष्म रूप से देखा जाये तो आप मेरे प्रभु हैं और मैं आपका सेवक हूँ । परन्तु इससे भी अतिसूक्ष्म दृष्टि भी होती है जिसको कारण स्वरुप कहा जाता है । अगर उस दृष्टि से देखा जाये यानि कारण स्वरुप से देखा जाये तो जो आप हैं, वही मैं हूँ । "
                                    यह वह स्थिति है जब भक्त को सम्पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है । ऐसी स्थिति में भक्त ही भगवान हो जाता है । वैसे कारण स्वरुप से पत्येक व्यक्ति भी वैसे भी भगवान ही होता है ,परन्तु बुद्धि पर पड़े अज्ञान के परदे के कारण वह कारण स्वरुप को समझ नहीं पाता । जिस समय ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब अभी तक का सत्य कहीं बहुत पीछे छूट जाता है और वास्तविक सत्य सामने आ जाता है । हनुमान ने जो तीन अवस्थाएं बताई है,वे तीनो ही सत्य है । अंतर हमारी दृष्टि का ही है । संसार की दृष्टि स्थूल होती है,इस कारण से प्रत्येक व्यक्ति अन्य सभी से अपने को अलग समझता है । आध्यात्मिक दृष्टि से जब परिपक्वता आती है तो यह भेद धीरे धीरे समाप्त होने लगता है । जब यह भेद पूर्णतया समाप्त हो जाता है तब  रहा सहा अव्यक्त और व्यक्त का भेद भी मिट जाता है ।
                                    जो अव्यक्त है वह व्यक्त हो सकता है और व्यक्त को भी एक दिन अव्यक्त होना है । जब ऐसा होना ही सत्य है तो फिर हनुमान और राम में अंतर ही क्या रह जायेगा ? यही तो अंतिम और शाश्वत सत्य है ।
क्रमशः
                                                || हरिः शरणम् ||       

Monday, May 19, 2014

सत्य -असत्य |-२१

                                  परम-ब्रह्म परमात्मा की तीन सत प्रकृति है -अस्ति,भाती और प्रियम् । तीसरी सत प्रकृति प्रियम् है अर्थात परमात्मा स्वयं प्रिय है और परमात्मा को सभी प्रिय है । परमात्मा स्वयं प्रिय है क्योंकि परमात्मा ऐसे किसी भी कर्म में लिप्त नहीं होते है और न ही ऐसा कोई कर्म करते है जिसके कारण किसी के मन में उनके प्रति द्वेष भाव पैदा हो । संसार में प्रिय होना और प्रियता का सबके साथ व्यवहार करना एक दूसरे के पूरक है । अगर आप सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं तो आप सबको प्रिय लगोगे । प्रेमपूर्ण व्यवहार का अर्थ यह कदापि नहीं है कि किसी के नाराज़ हो जाने के भय से हम झूठा प्रेम प्रदर्शन करें।
                                   परमात्मा का व्यवहार सबके प्रति समता का व्यवहार है । समता का व्यवहार ही प्रिय व्यवहार है जो व्यक्ति को सबके लिए प्रिय बना सकता है । संसार में समता का पालन करना सबसे मुश्किल कार्य है । इसी लिए कोई व्यक्ति कुछ लोगों के लिए अप्रिय हो सकता है ,भले ही ज्यादातर लोगों में उसकी छवि एक प्रिय व्यक्ति की हो । समता पूर्ण व्यवहार ही व्यक्ति को संसार से अलग करते हुए परमात्मा की तरफ ले जा सकता है । आज के युग में समता पूर्वक व्यवहार देखने को मिलना असंभव है,इसी कारण से प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति को अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ता है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
                                   अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
                                   सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ गीता १२/१६ ॥
अर्थात,जो पुरुष आकांक्षा से रहित,बहार-भीतर से शुद्ध,चतुर,पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है,वह सब आरंभो का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
                                उपरोक्त सभी लक्षण सरलता की पहचान है । सरल व्यक्ति ही एक मात्र आदर्श और सत्य व्यक्ति हो सकता है । परन्तु इस मानव जीवन की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यहाँ प्रत्येक व्यक्ति सरल होना तो चाहता है परन्तु हो नहीं पाता । इस भौतिक संसार में सरल होना ही सबसे  कठिन है ।  जिस दिन जीवन मे सरलता का पदार्पण होता है,सत्य आपके सम्मुख खड़ा होता है । संसार में व्याप्त असत्य का पूर्णतया  लोप हो जाता है । इस संसार में जीवन की सरलता ही व्यक्ति को प्रिय बनाती है । आप महान विभूतियों के जीवनकाल को अगर गौर से देखोगें तो पाओगे कि उनके जीवन की सरलता ने ही उन्हे प्रिय बनाया । सरल जीवन प्रेम करता भी  है और प्रेम पाता भी  है । भगवान राम का जीवन अति सरल था,तभी सबके वे प्रिय थे । श्री कृष्ण तो अपने समय मे इतने प्रिय थे कि कहा जाता है कि वृन्दावन की गोपियाँ उनके प्रेम मे इतनी पागल थी कि वे उनका प्रेम पाने के लिये अपने पतियों के आदेश की भी अवहेलना कर देतीं थी । जितने भी परमात्मा के अवतार इस धरा पर हुये हैं वे अपनी सरलता से सबकें प्रिय बने । उस परम-ब्रह्म परमात्मा की यह सत प्रक़ृति ही है ।
                                             संसार में असत से सत की ओर जाना ही सत्य को पाना है । असत्य मात्र सत्य का दृष्टि मे न आ पाना ही है । अन्यथा असत्य तो कहीं है ही नहीं । सत और असत ,दोनों ही परमात्मा की प्रकृति है,दोनोँ ही उसके द्वारा खेले जा रहे खेल है । इस खेल की प्रकृति को जान कर और पहचान कर खेल खेले वही एक आदर्श खिलाडी है। वही  व्यक्ति बता सकता है कि यहाँ इस खेल मे सब सत्य ही है ।  खुद खेल को अपने अनुसार खेलना असत्य है और परमात्मा के अनुसार खेलते रहना ही सत्य है ।
क्रमशः
                                   ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, May 18, 2014

सत्य - असत्य |-२०

                         परम-ब्रह्म परमात्मा की सत प्रकृति का पहला गुण है-अस्ति। अस्ति का अर्थ एक ही है । अस्ति अर्थात केवल वही है । यहाँ जो आपको मैं,तूं,वह,गाय,घोडा,पत्थर,पेड़,फूल इत्यादि जितने भी दिखाई दे रहे हैं ,वे सब वही एक ही है। उनको भिन्न भिन्न रूपों में देखना ही असत है,उसके भिन्न भिन्न नाम होना ही असत्य है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण इसको एक दम स्पष्ट रूप से कहते हैं । कहीं पर ही कोई संशय वे छोड़ते नहीं हैं ।
                                यो माँ पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
                                तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति ॥ गीता ६/३० ॥
अर्थात,जो पुरुष समस्त भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है,उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता ।
                     संसार में जितने भी जीव हैं सबमे वही एक मात्र परमात्मा निवास करता है । जब आपकी दृष्टि ऐसी हो जाएगी कि प्रत्येक वस्तु ,प्रत्येक जीव और प्रत्येक स्थान पर आपको परमात्मा ही परमात्मा नज़र आने लगे तब कही पर  कुछ भी असत्य नहीं रहेगा । सब कुछ सत्य हो जायेगा । वास्तविकता में देखा जाये तो इस ब्रह्माण्ड में परमात्मा के अतिरिक्त है भी क्या?जब तक आप परमात्मा के अतिरिक्त जो भी देखोगे वह सब असत्य होगा । असत्य इसलिए,क्योंकि जो भी आपकी भौतिक दृष्टि देखती है,वह सब परिवर्तनशील है । और सत्य कभी भी परिवर्तित नहीं होता ।
                        परमात्मा की दूसरी सत प्रकृति है भाती -स्व-प्रकाशमान । परमात्मा एक अक्षय ऊर्जा भंडार है । उसको किसी अन्य श्रोत से ऊर्जा प्राप्त करनी नहीं होती । हमारे सौर मंडल का सूर्य एक ऊर्जा श्रोत अवश्य है परन्तु वैज्ञानिक कहते हैं कि यह सूर्य भी एक दिन ठंडा हो जायेगा अर्थात इसमे स्थित ऊर्जा एक दिन समाप्त हो जाएगी । सूर्य की ऊर्जा का निरंतर समापन हो रहा है अतः वह स्व-प्रकाशित नहीं है क्योंकि स्व का प्रकाशित होने का अर्थ एक ही होता है-सदैव के लिए प्रकाशित होना । इस मायने में सूर्य स्व-प्रकाशित  नहीं है । वह प्रकाश और ऊर्जा किसी अन्य श्रोत से प्राप्त कर रहा है । वह श्रोत है-परम-ब्रह्म । जो स्व-प्रकाशित होने के साथ साथ दूसरों को भी प्रकाशित करता है ,दूसरों को भी अपनी ऊर्जा से ऊर्जावान बनाता है ।
                           इस दृष्टि से अर्थात सांसारिक दृष्टि से देखा जाये तो सूर्य भी परिवर्तनशील है । इस परिवर्तनशीलता के कारण सूर्य को भीअसत कहा जा सकता है । परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से अगर देखा जाये तो सूर्य के प्रकाश के पीछे भी आपको परमात्मा खड़े नज़र आएंगे । परमात्मा के सूर्य में दर्शन करते ही वह भी सत्य हो जायेगा । यही आध्यात्मिक ज्ञान है जो सांसारिकता के असत से आपको सत की तरफ ले जा सकता है ।
क्रमशः
                                      ॥ हरिः शरणम् ॥

Saturday, May 17, 2014

सत्य - असत्य |-१९

                                     इस प्रकार हमने शरीर के पाँचों भौतिक तत्वों के रूप और नाम की सक्षिप्त चर्चा की ।इससे पहले पांचो ज्ञानेन्द्रियों के कार्यों और उन पर पड़ने वाले मन के प्रभाव  पर भी चर्चा की थी । शरीर के इन तत्वों को अपनी परिवर्तनशीलता के कारण ही इन्हें असत ,असत्य कहा गया है । असत,इनके विभिन्न रूपों और नामों के कारण कहा गया है,वास्तविकता मे ये पांचों तत्व ही असत्य नहीँ  है । इनकी प्रकृति के कारण से इनको असत्य कहा गया है । पाँचों तत्व उस परमात्मा के कारण  और एक दृष्टि से देखा जाये तो परमात्मा ही है ।  क्योंकि किसी भी एक तत्व की अनुपस्थिति से जीवन सम्भव नहीं होता । परमात्मा कभी भी असत्य नहीं हो सकते इसलिए ये पांचों तत्व भी असत्य नहीं है ।
                                  इसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियाँ,कर्मेन्द्रियाँ तथा इनके विषय और मन,बुद्धि व अहंकार आदि शेष बचे १८ तत्वों की प्रकृति भी असत है । असत,इसलिए क्योंकि इनमे निरंतर परिवर्तन होता रहता है । स्थाई भाव का अभाव इन्हे सत्य नहीं होने देता ,जबकि ये सभी सत्य हैं । जब परमात्मा के कारण ही समस्त २३ असत तत्व है,तो इनके असत्य होने का तो प्रश्न ही नहीं है ।
                              आप सभी पाँचों भौतिक तत्वों को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि किसी एक की अनुपस्थिति अथवा थोड़ी सी कमी भी जीवन के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकती है । ऐसे में इनका असत्य होना या इन्हे असत्य कहना उचित नहीं है । इनके विभिन्न नाम और रूप असत हो सकते हैं और हैं भी परन्तु मूल रूप से ये तत्व सत ही हैं । सांसारिकता में आसक्त या लिप्त हो जाने के कारण ही असत्य हो जाते हैं ।
                                  इस प्रकार हमने देखा कि परम-ब्रह्म परमात्मा की असत प्रकृति में नाम और रूप परिवर्तनशीलता के कारण असत है । मूल रूप से परमात्मा की प्रकृति असत और सत से परे ही है । असत के बाद हम उस परम पिता परमात्मा की सत प्रकृति का अवलोकन करते हैं । परमात्मा की सत प्रकृति के तीन गुण या तीन भाग है -अस्ति,भाती और प्रियम् । ये तीनो गुण कभी भी परिवर्तित नहीं होते ,अतः इन्हे परमात्मा की सत प्रकृति कहा जाता है । अस्ति का अर्थ होता है "होना" या "है" । भाती  का अर्थ होता है "स्व-प्रकाशित " या "प्रकाशमान "अर्थात किसी अन्य के प्रभाव से प्रकाशित न होना बल्कि स्वयं का प्रकाशमान होना । तीसरी और अंतिम सत प्रकृति है प्रियम् । प्रियम् का अर्थ है सबको प्रेम करनेवाला और सबसे प्रेम पानेवाला ।
                             परमात्मा की ऊपर वर्णित तीनों सत प्रकृतियाँ कभी भी बदलती नहीं है ,सत्य है । इनकी विवेचना करने पर हम इनके अपरिवर्तनीय गुण  को सत्य पाएंगे ।
क्रमशः
                                            || हरिः शरणम् ||  

Friday, May 16, 2014

सत्य - असत्य |-१८

                                       नाम और रूप,जो कि परम-ब्रह्म परमात्मा की असत प्रकृति है ,का अस्तित्व सदा के लिए नहीं है । स्थायित्व के अभाव के कारण ही यह असत है अन्यथा सत तो सदा के लिए स्थाई होता है । जो पहले भी था आज भी है और भविष्य में भी होगा उसी को सत कहा जा सकता है । सत्य में ही किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । असत या असत्य या जड़ प्रकृति कहना एक ही बात है । यह भौतिक शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इन पाँचों का नाम भी होता है और रूप भी । इनके भी नाम और रूप परिवर्तित होते रहते हैं । इसीलिए इनकी प्रकृति अपरा,असत्य,जड़ या असत नाम से वर्गीकृत की गयी है ।
                         इन पांच तत्वों में पहला तत्व है-पृथ्वी । इस पृथ्वी पर स्थित पत्थरों के ढेर को हम पहाड़ कहते है,बालू मिट्टी से पटे स्थान को हम रेगिस्तान कह देते हैं । पहाड़ों के बीच पठार और दर्रे होते है । ये सब है पृथ्वी ही,परन्तु इनका रूप परिवर्तित होते ही इनके नाम भी बदल जाते है । हमारा सारा संसार इस पृथ्वी पर ही है । भौगोलिक दृष्टि से इनके नाम हम एशिया,यूरोप,अमेरिका इत्यादि रख देते हैं । राजनैतिक दृष्टि से सीमांकन करते हुए विभिन्न नामों के देश बना देते है । आज जो देश है ,कल वह विभाजित होकर अन्य एक ,दो या अधिक देशों के नाम परिवर्तित कर लेते है । पृथ्वी एक ही है परन्तु अलग अलग रूपों के कारण नाम अलग अलग हो जाते है । आज जहाँ रेगिस्तान है वहां कल जंगल हो सकते है ,आज जहाँ पहाड़ है कल वहां ज्वालमुखी भी बन सकता है ,पहाड़ ,पठार ,रेगिस्तान,जंगल सब परिवर्तित हो सकते है । परिवर्तन पृथ्वी के रूप और नाम में हो रहा है अतः यह शरीर का एक जड़ तत्व है जिसकी प्रकृति असत है क्योंकि इसमे परिवर्तन होते रहते हैं ।
                       दूसरा तत्व है-जल । जल के उबलने पर उसका नाम वाष्प हो जाता है,जो उसके रूप परिवर्तन के कारण होता है । जब यही जल अत्यधिक ठंडा कर दिया जाये तो वह ठोस रूप में बदल जाता है । रूप परिवर्तित होते ही नाम भी बदल जाता है । ठोस अवस्था के जल को हम बर्फ नाम से पुकारते हैं । जल में जब चीनी मिला दी जाती है तब वह शरबत नाम से जाना जाता है । इसी कारण से रूप के अनुसार नाम बदलते रहते हैं जबकि उसका मूल तत्व जल ही होता है । रूप और नाम परिवर्तन के कारण जल की प्रकृति जड़ यानि असत कही गयी है ।
                       इस भौतिक शरीर का तीसरा तत्व है-अग्नि । अग्नि जब अपना विकराल रूप धारण कर  जंगल के जंगल जला डालती है तब वह आग दावानल कहलाती है । इसी अग्नि के कारण  जब दीपक सबको प्रकाशित करता है तब उसी अग्नि का नाम ज्योति हो जाता है । जब वह एक छोटी सी जगह  छोटे से रूप में अवस्थित होती है तब उसे चिंगारी कह देते हैं । यही अग्नि जब कोयले को जलाती है तब उसका नाम अंगारा हो जाता है । जब चिंगारी या अंगारा भभक उठता है तब इसी अग्नि का नाम ज्वाला बन जाता है । अग्नि का रूप और नाम परिवर्तित होता रहता है इसी कारण से अग्नि की प्रकृति असत कही गयी है ।
                          चौथा तत्व है आकाश । पृथ्वी के इर्द गिर्द जो आकाश अवस्थित है उसे हम वायुमंडल कहते हैं । वायुमंडल से बाहर निकलते ही यही आकाश अंतरिक्ष हो जाता है । वायुमंडल के कारण ही पृथ्वी पर जीवन संभव हुआ है । इस आकाश में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं ,अतः इसकी प्रकृति को भी असत कहा गया है ।
                पांचवां और अंतिम तत्व है-वायु । वायु के ४९ भिन्न भिन्न नाम और प्रकार है । इतने नाम परिवर्तन अन्य किसी तत्व के नहीं होते हैं । नाम और रूप परिवर्तनशीलता के कारण वायु तत्व को भी असत तत्व कहा गया है । जब वायु मंद गति से बहती है,बयार कहलाती है । जब इसकी गति तेज हो जाती है और पृथ्वी तत्व को अपने साथ कर लेती है तब इसका नाम आंधी या अंधड़ हो जाता है । और अधिक तेज गति हो तो फिर इसका नाम और रूप परिवर्तित हो तूफ़ान हो जाता है । इसी प्रकार मनुष्य के शरीर में भी वायु के भिन्न भिन्न रूप और नाम होते है । इनके कारण ही शरीर में वायु विकार पैदा होते हैं ।
क्रमशः
                               || हरिः शरणम् || 

Thursday, May 15, 2014

सत्य - असत्य |-१७

               परम - ब्रह्म ही सत है और असत ,इसीलिए वह इन दोनों से परे भी है । आज हम इस परम-ब्रह्म की सत और असत प्रकृतियों की चर्चा करेंगे । हम जिस संसार में रहते है,वह इस परमात्मा की असत प्रकृति है । इसी कारण से संसार को असत्य कहा गया है । संसार सबसे अधिक परिवर्तनशील है । पल पल में बदलते जा रहे संसार की आप अनुभूति भी कर सकते हैं । आप इस भौतिक शरीर को ही लें,यह हर पल बदलता जा रहा है । आपको इसकी अनुभूति तत्काल इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि सांसारिक क्रिया कलापों में हम इतने व्यस्त रहते हैं कि परिवर्तन की तरफ झांकने का अवसर ही नहीं मिल पाता । बालक के जन्म लेने के बाद जो उसका विकास होता है-मानसिक और शारीरिक ,वह सब होते जा रहे परिवर्तन की निरंतरता को ही अभिव्यक्त करते हैं । फिर शरीर युवावस्था प्राप्त करता है,तब भी निरंतर परिवर्तन चलता रहता है । वृद्धावस्था में शारीरिक परिवर्तन की गति अत्यधिक तीव्र हो जाती है । शरीर के अतिरिक्त भी आप संसार में प्रत्येक स्थान पर होने वाले परिवर्तन को देख सकते है । पृथ्वी का निरंतर गतिमान रहना,नदियों में जल का बहाव,समन्दर में उठती लहरें ,हवा का कभी तेज और कभी मंद गति से बहना ,ग्रहों और अन्य आकाशीय पिंडो का रोजाना अपनी स्थिति बदल लेना,मौसम का सतत परिवर्तन,पेड़ों और पौधों का बढ़ना आदि असंख्य उदाहरण मिल जायेंगे जो संसार की निरंतर परिवर्तनशीलता को अभिव्यक्त करते हैं ।
                              पवित्र धर्म-शास्त्र कहते हैं कि यह उस परम-ब्रह्म की असत प्रकृति ही है । असत प्रकृति दो प्रकार की बताई गयी है-रूप और नाम । रूप निरंतर परिवर्तन शील है । बच्चे का बाल रूप युवा होते होते पूर्ण रूप से बदल जाता है । आज आप जिस रास्ते से गुजरें है,कल पुनः उस रास्ते से होकर आइये । आपको उस रास्ते के स्वरूप में अंतर अवश्य मिलेगा । कल तक सरस्वती नदी कल कल बहा करती थी आज उसका स्वरुप कहीं पर भी नज़र नहीं आता । गंगा नदी का उद्गम स्थल गंगोत्री ग्लेशियर का निरंतर रूप बदलता जा रहा है । आज वह सिमट कर छोटा सा रह गया है । कल जिसके आप जयकारे लगा रहे थे वे आज मिट्टी में समा चुके हैं ।कल जो सुंदरी ब्रह्माण्ड सुंदरी बनी थी उसका वो रूप क्या आप आज देख सकते हैं ? इसी लिए रूप उस परमात्मा की एक परिवर्तनशील असत प्रकृति है ।
                            नाम भी परिवर्तनशील है । आज अभी इस जन्म में आपका नाम जो है वह पूर्व जन्म में कुछ अन्य था और न जाने आपका नाम अगले जन्म में क्या होगा ? आज को हम वर्तमान के नाम से पुकारते है,यही वर्तमान कल भूतकाल से पुकारा जाने लगेगा । आपका आने वाला कल आपका भविष्य काल है । २४ घंटे बाद आप उसे आपका वर्तमान कहेंगे । आज़ादी की लड़ाई में हजारों लोगों ने अपने जीवन की आहुति दी थी । आज हमें उनमे से केवल अँगुलियों पर गिन सकने वाले नाम याद है और भविष्य में हम उन्हें भी भूल जायेंगे । आज हम अपने देश को भारत कहते हैं । कई वर्षों पहले यही देश आर्यावर्त कहलाता था । सन् १९४७ से पहले पाकिस्तान और सन् १९७१ से पहले बांग्लादेश नाम के देश के नाम भी भारत हुआ करता था । यह नाम उस परमात्मा की परिवर्तनशील प्रकृति है। आप अगर अपने चारों और गंभीरता से अवलोकन करेंगे तो नाम की परिवर्तनशीलता प्रत्येक स्थान पर नज़र आएगी । कल की काशी आज की वाराणसी,कल का प्रयाग आज का इलाहाबाद आदि आदि ।
                         मैंने आज आपको परमात्मा की असत प्रकृति के दर्शन कराये है । असत प्रकृति भी परमात्मा का एक सत्य है । इसे असत्य नहीं कहा जा सकता , क्योंकि संसार में परिवर्तन होना , चाहे वह रूप-स्वरुप का परिवर्तन हो अथवा नाम का ,सब सत्य ही है ।
क्रमशः
                                          || हरिः शरणम् ||            

Wednesday, May 14, 2014

सत्य - असत्य |-१६

                                     भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के ९ वें अध्याय के १९ वें श्लोक में स्पष्ट कर दिया है कि इस ब्रह्माण्ड में जो भी है वह सब मैं ही हूँ या मेरे कारण ही है । इसके अंतर्गत वे सत्य-असत्य को भी स्पष्ट कर देते हैं कि सत-असत  भी मैं ही हूँ ।  इसलिए अब यह जानना आवश्यक हो गया है कि वे ही सत और असत दोनों कैसे हो सकते हैं ? भगवान श्रीकृष्ण परम-ब्रह्म के ही एक व्यक्त रूप है । अतः परम-ब्रह्म परमात्मा ही सत-असत हैं । इसको और सपष्ट करने के लिए हमें अपने शास्त्रों,वेद और उपनिषद् की तरफ उन्मुख होना होगा । शास्त्रों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि सत-असत भी उस परम-ब्रह्म के ही कारण है । परन्तु सत - असत दोनों होने के बावजूद भी वह इन दोनों से परे  हैं । जो सत-असत का कारण है ,वह सत-असत के समकक्ष या उससे ऊपर ही हो सकता है । अतः यह कहना कि परम-ब्रह्म परमात्मा सत-असत है और इन दोनों से परे है,उचित ही है ।
                                     हमारे पवित्र ग्रन्थ कहते हैं कि  परम-ब्रह्म के दो प्रकृतियाँ है,जिनके कारण उसे सत भी कहा जाता है और असत भी । एक परा और एक अपरा प्रकृति । सुविधा के लिए हम इसे सत और असत प्रकृति भी कह सकते हैं । सत प्रकृति है-अस्ति,भाति और प्रियम् । असत प्रकृति है-नाम और रूपम् । इस प्रकार परम-ब्रह्म परमात्मा की कुल पांच प्रकृति हुई । जिनमे तीन तो सत प्रकृति है और दो असत । सत प्रकृति वह होती है जो कभी भी  परिवर्तित नहीं होती है और असत प्रकृति वह है जो परिवर्तनशील है ।
                                 इस संसार में जो भी परिवर्तनशील है ,उसे हम असत कह देते है । जैसे संसार में जो भी दृष्टिगत है,वह  प्रतिपल बदल रहा है । यहाँ पर जो भी परिवर्तन हो रहा है वह सब इतनी तेज गति से हो रहा है कि आप अनुमान भी नहीं लगा सकते । जब इतना परिवर्तनशील यह संसार है तो फिर वह सत्य कैसे हो सकता है ? यह कहना और मानना एक दम सही है । जब यह संसार असत्य है ,तो फिर हम कैसे कह सकते हैं कि यहाँ सह कुछ सत्य ही है ? संसार प्रतिपल बदल रहा है इस कारण से संसार असत्य हुआ ,यह बात तो सत्य ही हुई न । इसी कारण से संसार को कभी भी सत्य नहीं कहा गया है बल्कि इसकी परिवर्तनशीलता को सत्य कहा गया है । इस सत्य को समझ लेना ही सत्य को पा लेना है । जब आपको संसार की परिवर्तनशीलता का अनुभव हो जायेगा फिर आपकी आसक्ति इसकी किसी भी बात में पैदा नहीं  हो सकती । आसक्ति रहित हो जाना ही सत्य को पा लेना है । 
क्रमशः
                      || हरिः शरणम् ||           

Tuesday, May 13, 2014

सत्य - असत्य |-१५

                               सत असत ,सत्य असत्य के बारे मे इतनी भ्रांतियां पैदा हो गई है कि सही रूप से इनको पहचानना मुश्किल ही नहीं ,लगभग असम्भव सा ही हो गया है ।ज्यादा दिग्भ्रमित करने का कार्य किया है आज के कथित उपदेशकों ने । सत्य और असत्य से दूर किसी नई बात को ही इनके नाम से प्रस्तुत किया जा रहा है । आज इस दिशा में मार्गदर्शक का कार्य कौन अपने कंधो पर ले,यही प्रश्न सबके सामने खडा है । जब समस्त लोग अपने अपने तरीके से और अपने हानि-लाभ को देखते हुये शब्दों की व्याख्या करने लग जाते है, तब यह प्रवचन मार्गदर्शन के स्थान पर एक तरह का व्यापार हो जाता है । ऐसे समय में एक जिज्ञासु के लिये शास्त्रों के अध्ययन के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता है । शास्त्रों के निरंतर अध्ययन करने से समस्त भ्रांतियां दूर हो जाती है और सत्य के प्रकाश से मन आलोकित हो जाता है ।
                             श्रीमद्भागवत गीता समस्त शास्त्रों का सार है । इसके अध्ययन से व्यक्ति की समस्त भ्रांतियां दूर हो जाती है ।गीता में सभी भ्रांतियों का निवारण तथ्यपरक तऱीके से किया गया है । गीता में किये गए विश्लेषण को पढ़ने से कई बार एक भ्रम की स्थिति पैदा अवश्य हो जाती है । परन्तु यह भ्रम की स्थिति भी व्यक्ति द्वारा गलत रूप से व्याख्या करने से ही पैदा होती है । अतः आवश्यकता है कि पर्याप्त धैर्य रखते हुये गीता की बातों का अध्ययन और मनन किया जाए।
                           सत और असत  को गीता मे भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि-
                                तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्वाम्युत्सृजामि च ।
                                अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ गीता ९/१९ ॥
अर्थात,मैं ही सूर्य रूप में तपता हूँ,वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ । हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत - असत भी मैं ही हूँ । 
                        यहाँ भगवान श्री कृष्ण का यही कहना है कि संसार में जो कुछ भी है,वह सब मैं ही हूँ । भगवान श्रीकृष्ण परमब्रह्म परमात्मा का ही एक व्यक्त रूप है अतः वे असत हो ही नहीं सकते । वे सत ही हैं । संसार में जो भी है वह परमात्मा के कारण या परमात्मा ही है ,इस कारण से यहाँ पर सब कुछ सत्य ही हुआ । असत्य होने का प्रश्न ही नहीं है ।
                      सत और असत  मैँ ही  हूँ ,इसका सीधा सा अर्थ एक ही  निकलता है । वे अर्जुन के माध्यम से समस्त मानव  जाति को यही सन्देश देना चाहते हैं कि संसार मे जो भी सत्य और असत्य नज़र आ रहा है ,वह सब मैं ही हूँ अर्थात सब मेरे कारण  ही है । अतः किसी को भी इन शब्दों के जाल मे नहीं उलझना चहिये ।न ही इस भ्रम में पड़ना चाहिए कि सत्य क्या है और असत्य क्या है?इन सबको मेरा ही रूप और मेरी ही लीला समझें । यही सत्य है । इस सत्य के अतिरिक्त संसार मे कुछ भी नहीं है ।
क्रमशः
                                        || हरिः शरणम् || 

Monday, May 12, 2014

सत्य - असत्य |-१४

                         सत्य और असत्य का चक्कर कई बार इतना खतरनाक रूप ले लेता है की साधारण व्यक्ति का सिर भन्नाने लगता है । इसी लिए संतों ने सत्य और असत्य के फेर में न पड़ने को ही सत्य कहा है । यह कहना कि बिना सत्य को जाने समझे जीवन कितना बोझिल लगता है ,उचित है । परन्तु  सत्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो बाजार में जाकर खरीदी जा सके या किसी व्यक्ति से उधार  ली जा सके । जब तक आपकी अन्तरात्मा इसको समझने के लिए ,सत्य को पाने के लिए व्याकुल नहीं होगी, तब तक सत्य क्या है ,समझा नहीं जा सकेगा ।  जब प्यास बढती है ,एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाती है तभी मनुष्य जल के श्रोत की तलाश  करता है । आप सत्य को जानने के लिए कितने उत्सुक हैं ,इस बात का अनुमान आपकी सत्य के प्रति बढ़ती रुचि और सत्य को पाने की आपकी अतिशय प्यास से ही लगाया जा सकता है । संसार में आज तक मैंने किसी को भी सत्य के अतिरिक्त असत्य के बारे में बात करते नहीं  सुना । मैं आश्चर्यचकित हूँ,यह जानकर कि जब सभी सत्य के इतने समर्थन में है तो फिर चारों ओर असत्य ही असत्य क्यों नज़र आ रहा है ?यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि संसार में सब ओर जब सत्य ही सत्य है तो फिर मुझे असत्य क्यों नज़र आ रहा है ?
                   यह असत्य केवल मुझे ही नज़र नहीं आ रहा है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ ऐसा ही हो रहा है । इस संसार में हर व्यक्ति  सत्य के प्रति इतना आसक्त हो गया है कि  इस संसार में सत्य पर वह अपना एकाधिकार समझने लगा है । और जब आसक्ति,एकाधिकार की हद तक बढ़ जाती है तब व्यक्ति को स्वयं के अतिरिक्त सब असत्य ही नज़र आने लगता है ,जबकि वास्तव में सब ओर सत्य ही होता है । सत्य का एक मात्र स्वामित्व स्वयं के पास होना मान लेना ही उस व्यक्ति को सत्य से उसे कोसों दूर कर देता है  । अतः कहा जा सकता है कि सत्य को जानना,समझना और आत्मसात कर लेना ही सबसे अच्छी बात है,सत्य के प्रति आसक्ति आपको सत्य उपलब्ध नहीं करा सकती । अगर आप सत्य को आत्मसात कर लेते हैं तो फिर संसार में कहीं भी असत्य नज़र नहीं आएगा । जब राजा जनक ने अपने गुरु अष्टावक्र से सत्य जान लिया और सत्य को आत्मसात कर लिया,तुरंत ही ,उसी समय वे विदेह हो गए । उन्हें संसार में चारों ओर सत्य ही सत्य नज़र आने लगा । इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि केवल राजा जनक को ही सत्य नज़र आने लगा । यह वास्तविकता है कि संसार में हर ओर सत्य ही है ,असत्य है ही नहीं ।
               मैंने प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि संसार में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है,अँधेरा है ही नहीं । हम प्रकाश की न्यूनतम मात्रा को अँधेरा कह अवश्य देते है परन्तु अगर गंभीरता से देखा जाये तो अँधेरे का अस्तित्व है ही नहीं । आप जरा उल्लू से पूछ कर देखें,वह कहेगा कि अँधेरा तो दिन में होता है,प्रकाश तो रात को ही होता है । अब  आप स्वयं ही निर्णय कीजिये कि वास्तव में अस्तित्व प्रकाश का है या अँधेरे का,सत्य का है या असत्य का । और जिस दिन आप सही निर्णय पर पहुंच जायेंगे फिर आपको कही पर भी नहीं भटकना होगा सत्य को पाने के लिए । आप सत्य के बीच ही अपने को खड़ा पाएंगे।
क्रमशः
                                   ||  हरिः शरणम् ||     

Sunday, May 11, 2014

सत्य - असत्य |-१३

                                 सत्यं ब्रूयात्  प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ।
                                  प्रियं  च  नानृतं  ब्रूयात्  एष  धर्मः  सनातनः ॥ मनुस्मृति ४/१३८ ॥
                         अर्थात् सत्य बोलें,प्रिय बोलें परन्तु न तो अप्रिय सत्य बोलें और न ही प्रिय असत्य बोलें ।
                                                मनुस्मृति का यह श्लोक आम व्यक्ति के जीवन के लिये बड़ा ही उपयोगी है । आपके जीवन में सत्य या असत्य जिस को भी आप महत्वपूर्ण मानते हैं उसके साथ किस तरीके का व्यवहार होना चहिये ,यह श्लोक उसे एकदम स्पष्ट करता है । एक दार्शनिक और आध्यात्मिक व्यक्ति के अनुसार संसार में जो भी दृष्टिगोचर हो रहा है अथवा जो अभी भी अदृशय है और कभी भी दृष्टिगोचर हो सकता है ,सब सत्य है । परन्तु एक सांसारिक व्यक्ति के अनुसार सत्य और असत्य दो अलग अलग हैं । सांसारिकता के अनुसार असत्य और सत्य दोनों को ही अगर सही मान लिया  जाये तो व्यावहारिकता मे इन दोनोँ का कैसे उपयोग किया जाए,इसका मार्गदर्शन यह श्लोक करता है ।
                                                यहाँ यह श्लोक यही कहता है कि व्यावहारिकता की दृष्टि से प्रिय असत्य तो कभी भी नहीं बोलना चाहिए । प्रिय असत्य बोलना तो अप्रिय सत्य बोलने से भी अधिक घातक होता है ।आज इस संसार में चारों ओर या तो अप्रिय सत्य बोला जा रहा है या फ़िर प्रिय असत्य ।यह श्लोक उन लोगों का मार्गदर्शन करता है जो  या तो सत्य बोलने की कसम खाकर बैठे हैं या फ़िर उन लोगों को इससे शिक्षा लेनी चाहिए जो सदैव ही प्रिय बोलने के चक्कर में असत्य को ही उच्चारित किये जा रहे हैं । सत्य जब किसी की जिंदगी पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दे तो फ़िर वह प्रिय सत्य कैसे हो सकता है ?  इसी प्रकार जब कोई  प्रिय लगने  वाली असत्य बात किसी की जिन्दगी को तबाही की कगार पर पहुंचा सकती है तो फ़िर ऐसे अप्रिय सत्य और प्रिय सत्य को सदैव ही कहने से बचना चाहिए । ऐसी स्थिति में मौन रह जाना ही सबसे उपयुक्त विकल्प होता है ।
क्रमशः
                                     || हरिः शरणम् ||  

Saturday, May 10, 2014

सत्य - असत्य | -१२

                 केवल आँखें और त्वचा की संवेदी प्रकृति ही आपकी मनोदशा प्रतिबिंबित नहीं करती बल्कि समस्त पांचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ भी ऐसा ही है । आपकी जीभ स्वाद का ज्ञान करने वाली एक इन्द्रिय है । उन पर स्वाद का ज्ञान कराने वाली स्वाद कोशिकाएं या स्वाद कलियाँ होती है । साधारण परिस्थितियों में स्वाद का ज्ञान एक दम सटीक होता है । भौतिक रूप से जब किसी रसायन के प्रभाव से या किसी अत्यधिक ठन्डे या अत्यधिक गर्म तरल पदार्थ के खाने के कारण इन स्वाद कोशिकाओं को क्षति पहुंचती है । इस क्षति के कारण अस्थाई तौर पर कुछ समय के लिए स्वाद के ज्ञान में परिवर्तन होना संभव है ,अन्यथा साधारण अवस्था में यह इन्द्रिय सही और सटीक कार्य करती रहती है । जब मनुष्य की मनोदशा अच्छी नहीं होती तब ऐसी परिस्थितियों बन जाती है कि जीभ से लिया जाने वाला स्वाद एक दम से गायब हो जाता है । ऐसा नहीं है कि स्वाद का उल्टा ज्ञान होने लगता हो ,मीठा पदार्थ खारा लगने लगता हो बल्कि स्वाद का अनुभव होना ही समाप्त हो जाता है । स्वाद का ज्ञान कराने वाली ज्ञानेन्द्रिय जीभ अवश्य है परन्तु इसकी भूमिका मात्र मस्तिष्क तक स्वाद का संकेत भेजना ही है । स्वाद का अनुभव करना मस्तिष्क का कार्य है न कि जीभ का । और यह ज्ञान मस्तिष्क तभी कर पाता है जबकि आपकी मानसिक अवस्था सामान्य हो । स्वाद आने या न आने से सत्य का कोई सम्बन्ध नहीं है । स्वाद जैसा भी हो वही सत्य है ।
                 इसी प्रकार आपकी घ्राण शक्ति भी परिस्थितियों के अनुसार  बदलती रहती है । एक बार एक राज्य की राजकुमारी अपने ही राज्य के किसी गाँव से गुजर रही थी । वहां चर्मकार रहते थे । वे एक घर में गयी । चमड़े से आ रही बदबू उससे सहन नहीं हो रही थी । उसने चर्मकार से कहा-"अगर मैं इस घर में रहूँ तो यह बदबू एक सप्ताह में मिटा दूँ । आप लोग सफाई नहीं रखते ,इस कारण से यह बदबू आती है ।"चर्मकार ने उसे ऐसा ही करने को कह दिया । राजकुमारी एक सप्ताह के लिए वहीँ रूक गयी । एक सप्ताह बाद उसने चर्मकार से कहा कि देखो,सारी  बदबू गायब हो गयी न ?चर्मकार ने कहा-"हमें तो पहले भी बदबू का एहसास नहीं होता था । हम तो इसको सहन करने के अभ्यस्त थे । आप भी एक सप्ताह में इस बदबू की अभ्यस्त हो गयी हो ।बदबू तो पहले जैसी ही है,उसमे कोई अंतर नहीं आया है ।"कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति जब किसी का भी अभ्यस्त हो जाता है तब उसे वही सत्य प्रतीत होने लगता है । बदबू आना और न आना सब समय और परिस्थिति के अनुसार होता है । सत्य दोनों ही है -पहला बदबू का सदैव वहां उपस्थित रहना और दूसरा वहां रहने वालों का बदबू के प्रति अभ्यस्त हो जाना ।
                       पांचवीं और अंतिम ज्ञानेन्द्रिय के बारे में भी यही कहा जा सकता है । कान  भौतिक रूप से उपस्थित अवश्य  होते है परन्तु सुनाई वही देता है जो हम सुनना चाहते हैं ।  आपकी मानसिक स्थिति ही इसके लिए उत्तरदाई है । आप किसी भीड़भाड़ वाले बाजार से गुज़र रहे होते हैं । वहां आपको ही क्यी,किसी को भी उस चिल्लपों  में कुछ भी सुनाई नहीं देता । फिर भी शाम तक करोड़ों और अरबों रुपयों का वहां व्यापार होता है । आप जानना चाहते हैं न ,ऐसा कैसे हो सकता है ?बाजार में सभी की मनोदशा व्यापार की होती है ,चाहे कोई कुछ बेचना चाहता हो या खरीदना । ऐसे बाजार में एक संत पुरुष को,एक आध्यात्मिक पुरुष को हो सकता है कुछ भी सुनाई न दे,परन्तु व्यापारी को सब कुछ स्पष्ट सुनाई देता है । इसी प्रकार एक व्यापारी को सत्संग या प्रवचन के दौरान नींद आ सकती है । सब कुछ व्यक्ति की मनोदशा पर निर्भर करता है ।
                     सभी परिस्थितियों में सत्य की उपस्थिति है,असत्य किसी भी स्थान पर नहीं है । सब परिस्थिति,काल और स्थान का प्रभाव है जो व्यक्ति की मानसिक दशा को परिवर्तित कर देता है ,जिसके कारण ही हमें असत्य सत्य और सत्य असत्य नज़र आता है परन्तु वास्तविकता यह है कि यहाँ सब ओर  सत्य ही है ,असत्य का कोई भी स्थान नहीं है ।
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् ||         

Friday, May 9, 2014

सत्य - असत्य |-११

                      सत्य ,वास्तव में है क्या ? जो आप आज अपनी आँखों से देख रहे हैं,वह तो बिल्कुल भी नहीं है | अगर मैं आपको कहूँ कि आपने उस समय क्या देखा,तो आप केवल उस बात का ही जिक्र करेंगे जो घटना आपकी आँखों ने घटित होते हुए देखी | आपकी आँखे केवल वही देखती है जो आप स्वयं देखना चाहते है |आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आँखे खुली होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप देख ही रहे हैं | मान लिया आपकी आँखे जीवित कैमरे की तरह व्यवहार करती है ,परन्तु एक साधारण कैमरे और आँख में यह सबसे बड़ा अंतर है कि कैमरा उस समय उसके सामने घटित हो रहे घटनाक्रम को रिकॉर्ड कर सकता है,देख सकता है,उसकी फोटो ले सकता है परन्तु आपकी खुली आँखे बिना आपकी इच्छा के देख नहीं सकती,किसी घटनाक्रम को रिकॉर्ड नहीं कर सकती और न ही भविष्य में उसे याद कर सकती है | आप घटना स्थल पर होते हुए भी कुछ भी न देख पाने को स्वतन्त्र हैं |आपका मन,आपकी बुद्धि अगर उस दृश्य में रुचि नहीं दर्शा रही है तो आप वह दृश्य किसी भी हालत में नहीं देख सकते | अगर वास्तव में ऐसा होता है तो फिर इसका उल्टा होना ,इसके विपरीत होना भी संभव है |मेरे कहने का मतलब यह है कि आपकी खुली आँखे वह सब भी देख सकती है ,जो उस वक्त घटित ही नहीं हो रहा हो |यह सब होना केवल मनुष्य के द्वारा ही हो सकता है ,पशुओं के पास ऐसा कर पाने की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है |
                                 ऐसा होना केवल मन के कारण ही संभव है | अगर मनुष्य की मानसिक स्थिति उस परिदृश्य के अनुकूल नहीं है तो फिर उसकी आँखे,उसकी खुली हुई आँखे सब कुछ देखने के बावजूद भी कुछ  नहीं देख पायेगी |ठीक इसके विपरीत अगर कोई व्यक्ति मानसिक उधेड़बुन में उलझा हुआ उस परिदृश्य को देख रहा हो तो वह उस घटनाक्रम को ,उस परिदृश्य को अलग तरीके से भी देख सकता है | सब इस मन का खेल है और मन असत प्रकृति का है | असत प्रकृति के द्वारा कुछ भी किया गया कार्य सत्य कैसे माना जा सकता है?इसी कारण से कहा जा सकता है कि आँखों देखी भी असत्य हो सकती है |
                                मनुष्य की पांच ज्ञानेन्द्रियाँ होती है और इन पांचो के साथ यही होता है |आप त्वचा से स्पर्श अनुभव करते हैं |आपका यह अनुभव भी आपकी मनोदशा पर निर्भर करता है |जब आप किसी परेशानी से जूझ रहे होते है तब आपको रात को नींद नहीं आ पाती |आपका कोमल बिस्तर भी रात भर आपको काटता रहता  है | जब आपकी मानसिक दशा अच्छी होती है,आप खुश होते हो तब आपको बिस्तर किसी भी प्रकार का उपलब्ध हो, नींद तत्काल आ जाती है | कठोर बिस्तर भी आपको कोमल नज़र आता है | बिस्तर का नींद से कोई सम्बन्ध नहीं है ,नींद का सम्बन्ध है आपकी मनोदशा से | सत्य का कोई सम्बन्ध नहीं है आपकी त्वचा के संवेदनशील या संवेदनहीन होने से |सत्य तो सदैव सत्य है,आपका अनुभव ,आपकी मनोदशा के अनुरूप होता है |यहाँ प्रश्न सत्य या असत्य का नहीं है ,आपकी मोदशा का है |ज्ञानेन्द्रिया जो व्यक्त करती है,वह सब आपकी मनोदशा को ही व्यक्त करती है | वह व्यक्त करना सत्य ही है ,असत्य तो संसार के मापदंड उसे बना देते हैं |
क्रमशः
                                        || हरिः शरणम् ||

Thursday, May 8, 2014

सत्य - असत्य |-१०

                                          सत्य तो सदैव सत्य ही रहता है,उसे असत्य मान लेना या सत्य को किसी अन्य रूप में समझ लेना इस संसार में लिप्त व्यक्ति की सबसे बड़ी कमजोरी है । वह जिस स्थिति में अपने अनुकूल उस सत्य को मानता है,वह उसी रूप में उस सत्य को स्वीकार करता है । चाहे आप उसे कितना भी आगाह करदे,वह इस बात को समझ ही नहीं पायेगा कि सत्य का वास्तविक स्वरुप उसके द्वारा स्वीकार किये जा रहे स्वरुप से एक दम भिन्न है । जब तक वह भविष्य में सत्य के वास्तविक स्वरुप को समझ पाता है ,तब तक बड़ी देर हो चुकी होती है । कई कई बार तो वह अपनी सम्पूर्ण जिंदगी में सत्य का वास्तविक स्वरुप समझ भी नहीं पाता । जब तक व्यक्ति अपने जीवन में सत्य के वास्तविक स्वरुप को जान नहीं पायेगा तब तक उसका जीवन आनंदित नहीं हो पायेगा । और बिना आनंद का जीवन पशु जीवन से भिन्न नहीं होता ।
                                           सत्य किसी से उधार नहीं मिलता और न ही ज्ञानी पुरुष आपको घोलकर पिला सकता है । यह तो आपकी प्रवृति पर निर्भर करता  है कि आप सत्य के स्वरुप को जानने के लिए कितने लालायित है । व्यक्ति की जिज्ञासु प्रवृति ही उसे सत्य के द्वार तक ले जाती है । सत्य तो हर देश(स्थान),काल (समय ) और परिस्थिति में मौजूद है । हम अपनी सांसारिकता के विकारों में लिप्तता के कारण उसे पहचान और स्वीकार नहीं कर पाते हैं । हम अपनी कमी को सत्य की कमी नहीं बता सकते । सत्य तो सभी प्रकार के विकारों से रहित होता है ।  
                                         मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि  वह सब कुछ जानते और समझते हुए भी सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता । इसका सबसे बड़ा कारण उसका मन होता है,जो उसे प्रत्येक बार एक दुविधा में डाल देता है । वह आत्मिक रूप से जानता है कि  सत्य क्या है? परन्तु उसका मन अगर सत्य को स्वीकार कर ले तो फिर वह सांसारिकता से ऊपर उठ जाता है और उसके कदम आध्यात्मिकता की राह पर आगे बढ़ जाते हैं । परन्तु यह जितना पढने और लिखने में आसान नज़र आता है , वास्तव में उतना आसान है नहीं । मन कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता ,जब तक कि मन पर पूर्ण रूप से नियंत्रण स्थापित न कर लिया जाये । सत्य को स्वीकार करने से सांसारिकता नष्ट हो जाती है औए सांसारिकता को ही मन एक सुख का साधन समझता है । अगर गंभीरता से देखा जाये तो सांसारिकता कोई असत्य नहीं है ,परन्तु मन सत्य को इसीलिए स्वीकार करने से इंकार कर देता है क्योंकि मन का मानना है कि सांसारिकता नष्ट हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायेगा ।
                               आखिर यह सांसारिकता है क्या? हम सब इस भौतिक संसार में रहते है । इस संसार में रहना कहीं से भी अनुचित नहीं है । परन्तु इस संसार में आसक्त हो जाना , लिप्त हो जाना और संसार के प्रत्येक कार्य का कर्ता  बन जाना ही सांसारिकता है । मन इसी सत्य को स्वीकार करने से इंकार करता है । आपको सभी भौतिक सुख सत्य को स्वीकार करने के उपरांत भी यथावत मिलते रहेंगे,इसमे किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए । इस सत्य को स्वीकार करते ही सब ओर सत्य ही सत्य नज़र आएगा । परमात्मा की तरफ जाने  का यह प्रथम कदम है ।
क्रमशः
                                            || हरिः शरणम् ||    

Wednesday, May 7, 2014

सत्य - असत्य |-९

                                         "गुरु गुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया " यह मशहूर कहावतों में से एक कहावत है । इसका अर्थ यह है कि जिस गुरु से शिक्षा प्राप्त कर शिष्य महारत हासिल करता है,उस महारत में ,उस क्षेत्र में वह अपने गुरु से दो कदम आगे होता है । गुरु से शिष्य अग्रणी हो जाये तो उस गुरु का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता  है । इसी प्रकार पुत्र ,अपने पिता से प्रशिक्षण पाकर उस क्षेत्र में अगर नए मापदंड स्थापित करता है तो पिता का सीना भी गर्व से फूल जाता है । गुरु और पिता को अपने शिष्य और पुत्र से साधारण परिस्थितियों में हार जाने पर भी गर्व महसूस होत्ता है । परन्तु यह सोचना कि  प्रत्येक परिस्थिति में गुरु और पिता को हार ही मिलनी है, भी गलत होगा । "गुरु गुड़ और चेला शक्कर" यह नियम केवल सौहार्दपूर्ण प्रतिस्पर्धा में ही सत्य साबित होता है ,महाभारत जैसे विशाल युद्ध जैसी परिस्थिति में नहीं । अगर यह कहावत प्रत्येक परिस्थिति में समान रूप से लागू होती तो श्रीकृष्ण को इतना जटिल और निर्दयी निर्णय नहीं लेना पड़ता । जटिल मैं इस लिए कहूँगा कि  एक परम ब्रह्म का साक्षात् व्यक्त रूप अपने नियमों को ताक पर कैसे रख सकता है तथा इस निर्णय को मैं निर्दयी इस लिए कहूँगा कि सबको पता था कि अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनकर आचार्य अपने हथियार डालकर निहत्थे हो जायेंगे । निहत्थे को मारना निर्दयता की पराकाष्ठा ही होती है ।द्रोणाचार्य किसी भी प्रकार अर्जुन से युद्ध कौशल मे कम नहीं  थे ,अतः युद्ध की परिस्थिति मे यह कहावत निःसंदेह  गलत ही  साबित होती,अगर तब श्रीकृष्ण किसी भी प्रकार की  भूमिका नहीं निभाते ।
                                          अब यह समझे कि आचार्य द्रोंण जैसे विशाल व्यक्तित्व ने बिना सोचे समझे यह कैसे स्वीकार कर लिया कि उनका पुत्र अश्वत्थामा इस युद्ध में मारा गया है ?  ठीक है ,युधिष्ठिर सत्यवादी थे परन्तु युद्ध एक ऐसी परिस्थिति पैदा कर देता है जहाँ कभी भी असत्य , सत्य का चोला पहनकर सामने आ सकता है । फिर द्रोणाचार्य तो युद्ध कला में पारंगत थे । उन्होंने अपने दुश्मन का इतना जल्दी विश्वास कैसे कर लिया कि वह सत्य वचन ही कह रहा है ?
                                          इस प्रश्न का उत्तर भी वही है जो प्रारंभ में बताया गया है । द्रोणाचार्य का पुत्र मोह बहुत ही अधिक था । यह आसक्ति ही उनके सोचने और समझने की क्षमता पर प्रहार कर बैठी । उन्होंने वास्तव में युधिष्ठिर के वाक्य को पूर्ण रूप से सुना ही नहीं,क्योंकि उनकी बुद्धि पुत्र मोह के अधीन थी । उनके लिए अश्वत्थामा का अर्थ मात्र उनका पुत्र होना ही था । उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि अश्वत्थामा नाम एक हाथी का भी हो सकता है । अश्वत्थामा मारा गया यही उनको सुनाई दिया । इतना सुनने के बाद उनकी श्रवण क्षमता ने जवाब दे दिया । हालाँकि युधिष्ठिर ने आगे यह भी बोला था कि नर नहीं बल्कि हाथी । बुद्धि पर हावी आसक्ति ने इस प्रकार वाक्य के दूसरे अंश को सुनने से द्रोणाचार्य को वंचित कर दिया ।
                                    अगर द्रोणाचार्य को यही वाक्य युद्ध के मैदान की परिस्थिति के अतिरिक्त अन्य किसी भी परिस्थिति में कहा जाता और यह कथन चाहे युधिष्ठिर का ही होता तो भी वे इस पर सहसा विश्वास नहीं कर पाते । लेकिन श्रीकृष्ण तो परम ब्रह्म थे,उनको तो सारा खेल खेलना आता है । वह अपनी मर्ज़ी से इस खेल के द्वारा किसी को भी और कभी भी नचा सकता था ,और सम्पूर्ण महाभारत युद्ध में उसने किया भी यही । सत्य को कभी भी असत्य कहला देता और कभी असत्य को सत्य । वह तो केवल परिस्थितियां निर्मित करता रहा और समस्त खेल निर्बाध गति से चलता रहा । वास्तव में देखा  जाये तो सारा खेल सत्य ही था ,असत्य और सत्य तो परिस्थितियों के अनुसार एक दूसरे के रूप में मरीचिका के रूप में आते रहे । मरीचिका अर्थात जल के आभास (सत्य) को ही जल (असत्य) मान लेना । जैसे कि आचार्य द्रोण ने किसी अन्य अश्वत्थामा की मृत्यु को अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु होने मान लिया था । यह सब होता है आसक्ति के कारण । जैसे प्यासा पशु जल में आसक्त होने के कारण मरीचिका को ही जल का श्रोत होना मान लेता है । आचार्य द्रोण के सामने युद्ध की परिस्थिति थी और पशु के सामने प्यास की ।इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अलग अलग परिस्थितियों मे सत्य को अलग अलग तरीक़े से समझा जाता है ।अलग अलग समझने के बावजूद भी सत्य सदैव सत्य ही रहता है,असत्य नहीं हो जाता ।
क्रमशः
                                       || हरिः शरणम् ||     

Tuesday, May 6, 2014

सत्य - असत्य | -८

                                सत्य सदैव के लिए ही सत्य होता है । देश काल और परिस्थितियां भले ही कुछ समय के लिए इसे धूमिल कर दे । सत्य कभी भी छुपा हुआ नहीं रह सकता । एक न एक दिन वह प्रकट होकर ही रहता है । हमने स्थान अर्थात देश और काल यानि समय के अनुसार सत्य को बदलते हुए जाना । आज हम चर्चा करेंगे कि सत्य परिस्थितियों के सापेक्ष किस तरह व्यवहार करता है ।
                               किसी भी व्यक्ति के द्वारा उच्चारित शब्द उसकी दशा को प्रतिबिंबित करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि उस व्यक्ति के द्वारा कही गई बात को उसकी मानसिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही देखा जाना चाहिए । जो श्रोता इस बात को समझ जाता है ,वही एक अच्छा श्रोता हो सकता है । एक आदर्श श्रोता के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी परिस्थिति को मस्तिष्क से निकाल बाहर करे और केवल वक्ता की बात को ही ध्यान लगाकर सुने । इससे वक्ता की मानसिक स्थिति का निर्धारण वह बड़ी ही आसानी से कर सकता है । प्रायः यह देख गया है कि श्रोता वक्ता की बात सुनने के दौरान ही अपनी मानसिक परिस्थितियों का भी चिन्तन करता रहता है । इस कारण से वह न तो वक्ता की बात को अच्छी  तरह समझ सकता है और न ही अपनी मानसिक उलझन का समाधान कर सकता है । सत्य को अच्छी  तरह समझने के लिए एक आदर्श श्रोता बनना आवश्यक है ।
                              व्यक्ति जब स्वयं विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा होता है तब वह वक्ता की आधी अधूरी बात ही सुन पाता है । इस आधी अधूरी सुनी हुई बात से सत्य के बारे में किसी भी बात का निर्णय कर पाना लगभग असंभव हो जाता है । इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण महाभारत काल का है । महाभारत युद्ध अपने चरम पर था । द्रोणाचार्य बड़े ही मन से युद्ध का संचालन कर रहे थे । भगवान श्रीकृष्ण को पांडवों और विजय के बीच द्रोणाचार्य खड़े नज़र आ रहे थे । अंत में श्रीकृष्ण ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया जिसके कारण युद्ध का परिणाम भी बदल गया ।उनका उद्देश्य था कि गुरु द्रोणाचार्य तक किसी भी प्रकार उनके पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार पहुँचाया जाय । इसके लिए श्रीकृष्ण ने पांडवों की सेना में शामिल एक अश्वत्थामा नामक हाथी को मरवा डाला । तभी पांडव सैनिकों ने शोर मचा डाला कि अश्वत्थामा मारा गया । गुरु द्रोणाचार्य को बड़ा दुःख हुआ परन्तु वे इसे सत्य मानने को तैयार नहीं थे । श्रीकृष्ण ने "अश्वत्थामा मारा गया" यह बात कहने के लिए युधिष्ठिर को कहा । युधिष्ठिर यह असत्य कहने को तैयार नहीं हुए । श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को समझाया कि यह असत्य नहीं है ,अश्वत्थामा नामक हाथी तो मारा गया, यही बात तुम अपने आचार्य को बता दो इससे तुम सत्य ही कहोगे और असत्य भाषण से बच जाओगे । अंत में किसी भी प्रकार युधिष्ठिर तैयार हो गए । उन्होंने जोर से कहा-"अश्वत्थामा मारा गया " फिर जरा धीरे से कहा "नर नहीं बल्कि  हाथी"। कहा जाता है कि दूसरा अंश युद्ध के शोर में दब गया । अश्वत्थामा की मृत्यु की खबर पाकर आचार्य द्रोंण ने हथियार डाल दिए ।  इस प्रकार द्रोणाचार्य के हथियार डालते ही युद्ध में विजय का झुकाव पांडवों की ओर हो गया । मौक़ा पाकर द्रोणाचार्य का वध उन्ही के शिष्य द्वारा कर दिया गया ।
                             महाभारत युद्ध के दौरान घटी यह एक असाधारण घटना थी । इस घटना में सत्य बोलते हुए भी सत्य को छुपा लिया गया था । यह असत्य को सत्य का आवरण लगाकर प्रस्तुत करने का एक बेहतरीन उदाहरण है । यहाँ बोला गया सत्य भी वास्तव में एक असत्य था । यह असत्य भी परिस्थिति अनुसार सत्य में परिवर्तित हो गया गया या यूँ कह सकते हैं कि सत्य में परिवर्तित कर दिया गया। वास्तव में देखा जाये तो बोला सत्य ही गया था परन्तु सत्य बोले जाने का उद्देश्य असत्य था ,युद्ध के नियमों के अनुसार नहीं था । अब हम विचार करेंगे कि परिस्थितियों की इस सत्य असत्य में क्या भूमिका थी?
क्रमशः
                                       || हरिः शरणम् || 

Monday, May 5, 2014

सत्य -असत्य |-७

                                            हमने यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक स्थान का सत्य अपनी स्थिति के अनुसार होता है |लेकिन साधारण व्यक्ति उसको असत्य समझने की भूल कर बैठता है |हर स्थान का सत्य अलग अलग होता है | किसी एक स्थान का सत्य दूसरे स्थान के लिए असत्य प्रतीत जरूर होता है,परन्तु वास्तव में असत्य नहीं होता | मैंने शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया था कि इस ब्रह्माण्ड में जो भी हमें दृष्टिगोचर होता है अथवा जो भी आज अदृश्य है,चाहे वह जड़ हो ,चेतन हो,मनुष्य हो,कीट पतंग हो,जानवर हो आदि कुछ भी हो सब सत्य ही है |मात्र स्थान,समय और परिस्थितियां उसे असत्य बना देती है |आज हम जानेंगे कि समय कैसे सत्य को असत्य में परिवर्तित कर देता है |
                                         गेलिलियो से पहले यह माना जाता था कि पृथ्वी स्थिर रहती है और सूर्य उसके चारों ओर परिक्रमा करता है | गेलिलियो ने सबसे पहले यह प्रतिपादित किया कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों और परिक्रमा कर रही है |सहस्राब्दियों से माने जाने वाले सत्य को गेलिलियो ने असत्य में बदल दिया |आज आधुनिक युग में गेलिलियो की बात भी असत्य साबित हो चुकी है | अब यह माना जाने लगा है की हमारे सौर मंडल का केंद्र सूर्य भी अपने समस्त ग्रहों को साथ लेकर किसी अन्य पिण्ड की परिक्रमा कर रहा है | हो सकता है ,यह तथ्य भी भविष्य में एक बार फिर झुठला दिया जाये |लेकिन पहले वाली बात भी उस समय में सत्य थी,गेलिलियो ने भी अपने समय में सत्य कहा था और आज का विज्ञान भी सत्य कह रहा है |अंतर केवल काल का यानि समय का ही है |आप आज कह सकते हैं कि गेलिलियो से पहले लोग असत्य कह रहे थे |यह भी कह सकते हैं कि गेलिलियो ने भी असत्य कहा था |आप एक बार गेलिलियो के काल में जाएँ या उससे पूर्ववर्ती काल में ,आपको सब वाही सत्य लगेगा जैसा उस समय में सत्य कहा जाता था |
                                     गीता के प्रथम श्लोक को पढ़कर पिछली शताब्दी तक लोग इस बात को असत्य बताते रहे कि भला संजय कुरुक्षेत्र से मीलों दूर बैठकर अंधे धृतराष्ट्र को एक बंद कमरे में आँखों देखा हाल बता रहा है |भला हो दूरदर्शन के अविष्कार कर्ता का ,जिसने अपने काल में इस बात को सत्य प्रमाणित कर दिया | ऐसे हजारों उदाहरण अपने शास्त्रों में भरे पड़े है,जो आज से पहले असत्य प्रतीत होते थे ,आज वे सभी एक एक कर सत्य प्रमाणित होते जा रहे हैं |वस्तव में देखा जाये तो ये सब पहले भी सत्य थे और आज भी है |अंतर केवल प्रमाणिकता का है | और आपको एक बात बता दूं,सत्य को कभी भी किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है |
                                आप को अपने चारों ओर समय और स्थान के अनुसार परिवर्तित होते जा रहे सत्य के सैंकड़ो उदाहरण मिल जायेंगे |आपकी बौधिक क्षमता इतनी अधिक होनी चाहिए कि आप सत्य को समय,स्थान अथवा परिस्थितियों के अनुसार देखना बंद कर दें |आप समस्त ज्ञान अर्जित करने के बाद भी सत्य को प्रमाणित नहीं कर पाएंगे |आप अपने ज्ञान से भी आगे निकल जायेंगे ,अपने इस तथाकथित ज्ञान का परित्याग करके ,तभी आप जान पाएंगे कि यहाँ सत्य के अतिरिक्त कुछ अन्य है भी नहीं |
क्रमशः
                                           || हरिः शरणम् ||   

Sunday, May 4, 2014

सत्य -असत्य |-६

                                सत्य और असत्य इस संसार में काल,स्थान और परिस्थिति सापेक्ष है । एक स्थान का सत्य उसी समय किसी अन्य स्थान पर असत्य हो जाता है । इसी प्रकार विपरीत परिस्थितियों में व्यक्त किया हुआ सत्य भी असत्य प्रतीत होता है । इस संसार का सत्य भी यही है कि यहाँ कुछ भी सत्य नहीं है । इसी कारण से संसार को मनीषियोंने असत्य अथवा असत कहा है । जो समय,स्थान और परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है,भला वह कभी सत कैसे हो सकता है?आपके लिए जो सत्य है,हो सकता है वह किसी अन्य के लिए असत्य भी हो सकता है ।
                               अभी मैं पिछले दिनों सेन फ्रांसिस्को से दुबई की उडान पर था । यह मार्ग उत्तरी ध्रुव पर से होकर है । जब उत्तरी ध्रुव पर से विमान गुजर रहा था तब मैं बड़ी ही असमंजस की स्थिति में यह सोचकर था कि यहाँ दक्षिणी दिशा किधर है? मैं तय नहीं कर पा रहा था ,क्योंकि अगर नीचे की तरफ इशारा करू तो वहां उत्तरी ध्रुव नज़र आ रहा था । मैंने पास बैठे सहयात्री से जब यही प्रश्न किया तो वह भी निरुत्तर था । अंत में मैंने  व्योमबाला से कहा कि वह विमान पायलट से पूछकर बताये कि दक्षिण दिशा किधर है । उत्तर देने के लिए पायलट स्वयं मेरे पास आये और कहने लगे कि  हम इस रास्ते से प्रतिदिन आते जाते है ,परन्तु ऐसा प्रश्न किसी भी यात्री ने कभी भी नहीं पूछा । उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया -" उत्तरी ध्रुव पर आकर सभी दिशाएं समाप्त हो जाती है ,इसी कारण से उत्तरी ध्रुव के मुख्य बिंदु परआकर विमान संचालन संभव नहीं हो पाता । अतः विमान को उत्तरी ध्रुव से कुछ किमी इधर या उधर से ही गुजारा जाता है ,उत्तरी ध्रुव के एकदम ऊपर से नहीं । अब यहाँ से हमारा विमान चाहे किसी भी दिशा की तरफ जाये,हर ओर दक्षिणी दिशा की ओर ही जायेगा क्योंकि चारों ओर से उत्तरी ध्रुव पीछे छूटेगा और हम दक्षिणी ध्रुव की तरफ ही बढ़ेंगे ।" मैंने गंभीरता के साथ उनकी बात पर विचार किया  और पाया कि विमान पायलट का कहना एकदम सही था । अब आप ही विचार कीजिये ,पृथ्वी के एक स्थान का सत्य दुसरे स्थान पर आकर कैसे असत्य हो जाता है ?वास्तव में वह असत्य नहीं होता है । दूसरे शब्दों में कहें तो कहा जा सकता है कि प्रत्येक स्थान का अपना अपना सत्य होता है । अतः किसी एक स्थान  के सत्य की तुलना किसी अन्य स्थान के सत्य से करना बेमानी होगा ।
                इसी प्रकार भारत और अमेरिका में लगभग १२ घण्टे का समयांतर है । भारत में रहने वाला अगर कहे कि अभी दोपहर है तो एक साधारण व्यक्ति जो कि अमेरिका में है इस बात को असत्य कहेगा । उसके अनुसार तो उस समय मध्य रात्रि होगी । कहने का अर्थ यह है कि सत्य  को स्थान  के परिपेक्ष्य में नहीं देखना चाहिए । सत्य तो स्थान के अनुसार बदलता रहता है । सत्य को स्थानानुसार असत्य घोषित कर देना अनुचित है ।
                   इस संसार में परमात्मा ने सब कुछ सत्य ही प्रकट किया है । यहाँ असत्य कुछ भी नहीं है । अतः सत्य और असत्य के भ्रम में न पड़े । आप भी इनसे परे  होकर जीवन का आनंद लें । जीवन आनंद लेने के लिए ही है । आप भी परमात्मा के अंश हैं और परमात्मा अपने आनंद केलिए ही इस सृष्टि की रचना करता है और आनंद के लिए ही उसे वापिस समेट भी लेता है । इन सबका ज्ञान प्राप्त कर समस्त ज्ञान को विस्मृत कर दें ,तभी आप जीवन का वास्तविक आनंद ले पाएंगे ।
क्रमशः
                                            || हरिः शरणम् || 

Saturday, May 3, 2014

सत्य - असत्य |-५

                                           सत्य और असत्य के चक्कर मे पड़ने के स्थान पर यह उचित होगा कि हम यह समझें कि सँसार मे  जो भी दृष्टिगत है और अदृश्य है ,सब सत्य है । चूँकि इस ब्रह्माण्ड मे जो दिखाई दे रहा  है वह सब उस परमब्रह्म का ही खेल है और जो आज दिखाई नहीं दे रहा है और भविष्य में कभी भी व्यक्त हो सकता है वह भी उस शक्तिशाली परमब्रह्म के कारण सम्भव है । इसी कारण  से संसार को असत्य कहना नितांत ही अनुचित है । अँधेरे का अर्थ प्रकाश की अनुपस्थिति नहीं है बल्कि प्रकाश की मात्रात्मक कमी है । ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि अँधेरा और प्रकाश एक दूसरे के विलोम है । यहाँ सत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । सत्य केवल सांसारिकता की दृष्टि से ही असत्य हो जाता है और असत्य भी सत्य प्रतीत होता  है । अन्यथा असत्य तो अस्तित्व विहीन है । इसको अगर और स्पष्ट करूँ तो कह सकता हूँ कि  आप का व्यक्त होना यानि एक व्यक्ति के रूप मे होना सत्य है । परन्तु आपका धनवान होना सत्य होते हुये भी असत्य होता है । धन भी  परमब्रह्म का पैदा किया हुआ है ,इस कारण से असत्य तो हो ही नहीं सकता । फिर भी संसार की दृष्टि में असत्य है । इसका कारण धन में व्यक्ति की  आसक्ति होना है । धन में आसक्ति न हो तो यह सत्य है और आसक्ति होने पर वही धन असत्य ।  गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
                                        नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
                                        उभयोरपि दृष्टोSअन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥गीता २/१६ ॥
अर्थात , असत वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव  नहीं है । इस प्रकार दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानियों द्वारा देखा गया है ।
                    सत में व्यक्ति की आसक्ति नहीं होती है । जब सत में आसक्ति पैदा हो जाती है तो फिर वह सत नहीं रहता बल्कि असत हो जाता है । असत वह है जो परिवर्तनशील है और सत कभी भी परिवर्तित नहीं होता है । आसक्ति होने पर उस वस्तु का अभाव हो जाने पर व्यक्ति को दुःख होता है । जबकि सत परिवर्तित नहीं होता ,जिससे उसका अभाव भी नहीं होता ,आसक्ति भी नहीं होती तथा फलस्वरूप दुःख भी नहीं होता । इसे ही  सत्य का असत्य हो जाना कहते है । सत्य के प्रति आसक्ति ही सत्य को असत्य बना देती है । यह दोष सत्य का नहीं है बल्कि आसक्ति का है ।
                संसार में सब कुछ सत्य है ,धन भी,यह शरीर भी,यह प्रकृति भी ,पुत्र,पुत्री,माता,पिता,पति,पत्नी  और  समस्त रिश्ते नाते भी और यहाँ तक कि आपके सोते समय या जागते हुए देखे जाने वाले सपने भी ,सब कुछ सत्य है । असत्य या असत तो ये सब ,तब  होजाते हैं जब इनमे व्यक्ति की आसक्ति पैदा होजाती है । आसक्ति पैदा होते ही कामना और आकांक्षाएं पैदा होने लगती है,जिनके पूरा होने या न होने से सुख या  दुःख होता है ।  अतः जिंदगी जीने की कला अगर सीखनी है तो फिर आसक्ति रहित हो जाइये । चारों ओर सत्य ही सत्य नज़र आएगा ,असत्य का नामोनिशान तक नहीं होगा । फिर न तो अत्यधिक ख़ुशी और न ही दुःख का अनुभव होगा । केवल आनन्द ही आनन्द होगा । आसक्ति रहित होना ही प्रेममय होना है । प्रेम ही एक मात्र संसार में ऐसा है जो आसक्ति से विलग है । अतः संसार में वास्तविकता में सत्य प्रेम ही है और प्रेम ही परमब्रह्म परमात्मा है ।
क्रमशः
                              ॥ हरिः शरणम् ॥      

Friday, May 2, 2014

सत्य - असत्य |-४

                                   शैव्या,जो कि पूर्व महारानी और राजा हरिशचंद्र की धर्मपत्नी है,से हरिशचंद्र का चिंतित रहना असहनीय होता जा रहा था । आखिर एक दिन सब कुछ सोच समझकर उसने हरिशचंद्र को प्रस्ताव दिया कि क्यों न वे उसे किसी को बेच दे , जिससे दक्षिणा की राशि जुटाई जा सके । हरिशचंद्र ने बहुत सोचने और विचारने के बाद अपनी पत्नी शैव्या को एक ब्राहमण के हाथों बेच दिया । जब ब्राह्मण शैव्या को ले जाने लगा तो रोहिताश्व रोने लगा । हरिशचंद्र ने ब्राह्मण से रोहिताश्व को भी साथ ले जाने का आग्रह किया । ब्राह्मण ने उस आग्रह को स्वीकार करते हुए दोनों को साथ लेकर चला गया । दोनों को ब्राह्मण को देने के उपरांत भी दक्षिणा में दी जाने वाली राशि अपर्याप्त थी । थकहारकर हरिशचंद्र ने अपने आप को भी एक चांडाल के  हाथ बेच दिया और ऋषि विश्वामित्र को दक्षिणा देकर दान लेना स्वीकार कराया। वापिस लौट आने पर चांडाल ने उन्हें शमशान घाट की जिम्मेदारी दी । उनका कार्य अंतिम संस्कार के लिए लाये जाने वाले शवों के अंतिम संस्कार के एवज में परिजनों से कर वसूलना था ।
                                   एक बार रोहिताश्व बाग में फूल चुन रहा था ,तभी एक जहरीले सर्प ने उसे डस  लिया । सर्प के डसते ही उसकी मृत्यु हो गयी । उसकी माता शैव्या उसके शव पर विलाप करने लगी । अंत में अपने आपको संभलकर वह रोहिताश्व के शव को अंतिम संस्कार के लिए उसी शमशान घाट ले गयी,जहाँ पर कर वसूलने के लिए हरिशचंद्र नियुक्त थे । शैव्या के साथ अपने पुत्र रोहिताश्व के शव को देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ । परन्तु उन्होंने रोहिताश्व का अंतिम संस्कार बिना कर चुकाए करने से साफ मना कर दिया । शिव्या ने बहुत आग्रह किया और बताया कि उसके पास कर में देने को कुछ भी नहीं है । फिर भी हरिशचंद्र बिना कर चुकाए अंतिम संस्कार करने को तैयार नहीं हुए । आखिरकार शैव्या अपनी साड़ी का आधा हिस्सा कर में देने को तैयार हुई । ज्योंही उसने अपनी साड़ी के दो टुकडे करने शुरू किये ,भगवान विष्णु प्रकट हो गए । कहा जाता है कि चांडाल के रूप में यम था और देवताओं ने हरिशचंद्र की परीक्षा लेने के लिए यह सब किया था । कहानी आगे बढती है और रोहिताश्व पुनः जीवित हो जाता है । इंद्र आते है और हरिशचंद्र को स्वर्ग ले जाते हैं और रोहिताश्व को विश्वामित्र ने अयोध्या का राज्य लौटाते हुए उन्हें वहां का राजा बना दिया ।
                                    इससे अधिक जानकारी सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र के बारे में मुझे पर्याप्त प्रयास करने के बाद भी उपलब्द्ध नहीं हुई । मैं सोचने को विवश हूँ कि किस आधार पर राजा  हरिशचन्द्र को सत्यवादी कहा गया ? मैं अपने विवेकानुसार इसे प्रमाणित करने का प्रयास कर रहा हूँ । सत्य को जाननेवाला  और उस पर विश्वास करने  वाला ही सत्यवादी कहला सकता है ,केवल सत्य बोलने वाला नहीं । इस मापदंड पर राजा हरिशचन्द्र खरे उतरते हैं । प्रथम प्रमाण यह है कि दान में दिए हुए राज्य को स्वीकार करने के लिए दी जाने वाली दक्षिणा के लिए जो समय उन्होंने ऋषि विश्वामित्र को दिया था,उन्होंने उस वचन की पालना के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया । दूसरा प्रमाण-अपने पुत्र को मृत देखकर भी वे अपने कर्तव्य पथ से बिलकुल भी च्युत नहीं हुए । तीसरा - पूर्व में एक राजा होते हुए भी चांडाल के प्रति पूर्ण भाव से समर्पित रहे । अंतिम प्रमाण यह कि उन्होंने सदैव ही समतापूर्ण व्यवहार किया जो कि एक सत्यवादी कहलाने के लिए पर्याप्त और आवश्यक योग्यता होती है ।
                                 ऐसे महापुरुष के जीवन के बारे  में मुझे और अधिक जानकारी नहीं मिल पाई ,इसका अफ़सोस है । किसी पाठक को इससे अधिक जानकारी हो तो कृपया प्रेषित करने का श्रम करें । मैं उनका ह्रदय से आभारी होऊंगा ।
                                             || हरिः शरणम् ||