Monday, November 13, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-21 (कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं,21(कल से आगे)-
               आत्मा की यह यात्रा विभिन्न शरीरों को प्राप्त करने और त्यागने की यात्रा है | इस आवागमन को निश्चित कौन करता है ? इस आवागमन को निश्चित करता है, मानव शरीर में प्रवेश की हुयी जीवात्मा | मनुष्य नामक प्राणी की इस प्रजाति के शरीर में जब जीवात्मा प्रवेश करती है, तब उसके साथ संलग्न मन इस शरीर से बहुत से कर्म करवाता है | ये कर्म ही मनुष्य शरीर की मृत्यु के बाद विभिन्न प्रकार की प्राणी-प्रजातियों के शरीरों की यात्रा करवाता है | यह यात्रा  84 लाख शरीरों की भी हो सकती हैं और उससे कम की भी | इन शरीरों में जाकर जीवात्मा केवल अपने पूर्व मानव शरीर में किये गए कर्मों का फल ही भोगती है, नए कर्म उन शरीरों से नहीं करवा सकती | वह जीवात्मा नए कर्म केवल मानव शरीर में रहते हुए ही करवा सकती है | पुनः मानव शरीर उस जीवात्मा को कब प्राप्त होगा वह भी पूर्व मनुष्य जीवन के कर्म ही निश्चित करते हैं | इस प्रकार एक मनुष्य शरीर को त्यागने के पश्चात पुनः मनुष्य शरीर को प्राप्त करने तक उस जीवात्मा को नए कर्म करवाने का इंतजार करना पड़ता है |
               जब पुनः मानव शरीर उस जीवात्मा को उपलब्ध होता है, तब उसे नए कर्म करने में सतर्कता बरतनी होगी | अगर पुनः इस मानव जन्म में भी पूर्व मानव जन्म की तरह ही कर्म होंगे तो फिर इस आवागमन से मुक्ति नहीं मिल सकेगी | आवागमन से मुक्त तभी हुआ जा सकता है, जब केवल वे ही कर्म किये जाये जो कर्म-फल नहीं देते हों | उन कर्मों को निष्काम-कर्म कहते हैं जो अकर्म में बदल जाते हैं और अकर्म को एक प्रकार से ‘कर्म करते हुए भी कर्म न करना’ भी कहते हैं | अकर्म का अर्थ यह नहीं हैं कि कर्म हुए ही नहीं है बल्कि अकर्म का अर्थ है ऐसे कर्म जो होते भी हैं और फल भी नहीं देते है | जो कर्म स्वयं के लिए न होकर जन-हित के हो, दूसरे को सुख पहुँचाने के लिए किये गए हों, वे सभी निष्काम कर्म कहलाते हैं और ये कर्म अकर्म बन जाते हैं क्योंकि इन कर्मों का लेखा-जोखा चित्त नहीं रखता | जब ऐसे कर्म चित्त में अंकित ही नहीं होंगे तो फिर उनका फल भी नहीं मिलेगा और ये तब कर्म अकर्म ही कहलायेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

1 comment:

  1. Thanku sir for your discussion. I am from West Bengal. My research work is also on transmigration of soul in philosophy.

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