भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.-22(समापन)-
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि हमें पाप-पुण्य
का विचार नहीं करना है बल्कि इनसे मुक्त होकर निरंतर परमात्मा के चिंतन में लग
जाना चाहिए | कहने का अर्थ है कि अपने स्तर पर कर्म शास्त्र सम्मत करते रहें,
प्रत्येक कर्म से मिलने वाले फल अर्थात पाप-पुण्य को कर्म करने का आधार न बनायें |
जो भी स्वाभाविक कर्म हो रहे हैं, उनको साक्षी भाव से होते हुए करना है | साक्षी-भाव
तभी उत्पन्न होगा जब हम अपनी इन्द्रियों के वशीभूत नहीं रहेंगे | हम सदैव सांसारिक
बंधन में बंधे हुए पाप-पुण्य का विचार कर सकाम कर्मों को ही करने में लगे रहते हैं
| ऐसे में हमें सुख-दुःख के चक्र से गुजरना पड़ता है | हमें अपनी इन्द्रियों को वश
में कर स्थितप्रज्ञ होना पड़ेगा तभी इन सांसारिक बंधनों से मुक्त हो सकेंगे |
संसार का आश्रय हमें भय-युक्त
रखता है जबकि परमात्मा का आश्रय हमें भय-मुक्त करता है | भय मुक्त रहना ही एक योगी
की पहचान है | हमें योगी होना होगा | जब चित्त को केवल एक परमात्मा में लगा देंगे
तभी निडर हुआ जा सकता है, तभी योगी हुआ जा सकता है और तभी आनंद को प्राप्त हुआ जा
सकता है | परमात्मा में चित्त लगाने का एक ही रास्ता है, सदैव गोविन्द को भजो | एक
परमात्मा की भक्ति ही हमें आनंद उपलब्ध करवा सकती है | केवल और केवल एक परमात्मा
की भक्ति करना ही अनन्य भक्ति कहलाती है | संसार के भय से मुक्ति केवल ऐसी अनन्य
भक्ति ही दिला सकती है |
जो योगी सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर
अपनी इन्द्रियों को वश में करने में सक्षम हो जाता है, उसे किसी बात का डर नहीं
रहता और वह निडर होकर, एक चंचल बालक के समान, अपना जीवन व्यतीत करता है | यही
शंकराचार्यजी महाराज के शिष्य का कहना है |
रथ्याचर्पट-विरचित-कन्थः,
पुण्यापुण्य-विवर्जित-पन्थः |
योगी योग नियोजित चित्तः,
रमते बालोन्मत्त्वदेव ||22||
अर्थात रथ के नीचे आने से फटे हुए पकडे पहनने
वाले, पाप-पुण्य से मुक्त राह पर चलने वाले, योग में चित्त को लगाने वाले योगी बालक
के सामान सदैव आनंद में रहते हैं |
“|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-23
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल ||
|| हरिः शरणम् ||
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