भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.26(कल से आगे-6)-
संसार में अब तक जितने भी महापुरुष
हुए हैं, वे प्रायः गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही हुए हैं | गृहस्थ जीवन में रहते
हुए ‘काम’ से दूर रहना ही वास्तविक आध्यात्मिकता है | गृहस्थ जीवन में भोगों से
अनासक्त हो जाने से अधिक सरल है, संसार को त्यागकर जंगल में जाकर तपस्या में लीन
हो जाना | गुलाब का फूल सुन्दर और सुगन्धित अवश्य होता है फिर भी कमल के फूल को अधिक
महत्त्व दिया जाता है | क्यों ? कमल का फूल ही एक मात्र ऐसा फूल है जो कीचड में भी
खिल कर मुसकुराना जानता है | संसार भी ऐसा ही एक प्रकार का वासना युक्त कीचड़ है
जहाँ चारों और किसी अन्य से सुख पाने की कामना का भाव (काम) फैला हुआ है | ऐसे में
एक गृहस्थ अगर ‘काम-भाव’ का त्याग करता है, तो वह जंगल में बैठे एक तपस्वी से अधिक
महत्वपूर्ण व्यक्ति हो जाता है |
गीता में भगवान श्री कृष्ण कर्म
के त्याग की बात नहीं कहते हैं बल्कि ‘काम’ के त्याग की बात करते हैं | ’काम’ का
त्याग ही कर्म-योग है | ईशावास्योपनिषद का प्रथम मन्त्र भी यही कहता है ‘त्येन
त्यक्तेन भुंजीथा’ अर्थात प्रारब्ध वश मिले हुए भोग को त्याग पूर्वक भोगो | एक गृहस्थ
के लिए यह आदर्श मन्त्र है | त्याग पूर्वक भोगने का अर्थ है, न तो उस भोग से भागो
और न ही भोग को आसक्त भाव से भोगो बल्कि भोग के प्रति जागरूक बनो | भोग को समझना
ही भोग के प्रति जागरूक होना है | जो व्यक्ति भोग को भोगता है वही उस भोग को त्याग
सकता है | भला बिना भोग को भोगे कोई उसका कैसा त्याग कैसे कर सकता है ? मुझमें अगर
धूम्रपान का व्यसन है तभी तो मैं उस व्यसन का त्याग कर सकता हूँ | जिस व्यक्ति ने
अपने जीवन में एक बार भी धूम्रपान नहीं किया, वह उसका त्याग कैसे कर सकता है ? जिसने
कुछ भी नहीं भोगा, उसके द्वारा किसी प्रकार का त्याग करना संभव ही नहीं है | जो
भोग के प्रति आसक्ति-भाव को त्याग देगा, केवल वही आनंद को उपलब्ध हो सकेगा | इस
प्रकार अनासक्त रहकर भोग करने को ही उपनिषद् में त्याग पूर्वक भोगना कहा गया है | त्याग
पूर्वक भोगना ही ‘काम’ को मारना है | एक बार भोग को भोगने के बाद मन में कभी उस भोग
का विचार भी नहीं रहे, तब उसे भोग का त्याग करना कहा जाता है | इस बात को
भली-भांति समझ लें कि एक गृहस्थ के रूप में रहने के लिए ‘काम’ आवश्यक नहीं है |
गृहस्थ जीवन में रहते हुए अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए कर्म अवश्य ही करें
परन्तु अनासक्त भाव से करें | फिर आप भी अनुभव करेंगे कि अब क्रोध कहाँ चला गया, मन
में लोभ क्यों पैदा नहीं हुआ ? मोह के उत्पन्न होने का तो फिर प्रश्न ही नहीं रह
जाता | इतना सब कुछ करना ही अनुभव करने का विज्ञान है | केवल पढ़ कर ज्ञान प्राप्त
कर लेना पर्याप्त नहीं है बल्कि उस ज्ञान का जीवन में उपयोग करना ही विज्ञान है |
जीवन में ज्ञान को अनुभव कर लेना विज्ञान कहलाता है | इस अनुभव से ही ‘काम’ को
मारा जा सकता है | जिस दिन आप ‘काम’ को मार डालेंगे, फिर गृहस्थ जीवन भी सरल और सहज
प्रतीत होगा और साथ ही शांत भी | इसीलिए गीता में कहा गया है “त्यागा छान्तिरनन्तरम्’
अर्थात त्याग से ही शांति मिलती है और अनंत शांति को प्राप्त हुआ जा सकता है | शास्त्रों
ने भी गृहस्थ के लिए ‘त्याग’ और संन्यासियों के लिए ‘तप’ को महत्वपूर्ण बताया है |
गृहस्थ जीवन में ‘काम’ का ‘त्याग’ ही एक दिन ‘तप’ बन जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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