भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.-21(समापन)-
शंकराचार्यजी महाराज के शिष्य का इस
श्लोक के माध्यम से यही कहना है कि यह बार-बार मरना, बार-बार माता के गर्भ में
पड़ना, विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करना और उन्हें त्यागना, इनसे कैसे पार हुआ जा
सकता है ? यह संसार चक्र है, उसे ही संसार सागर कहा गया है | इस संसार सागर से पार
जाने का कौन सा मार्ग है ? बार-बार जन्म लेना और बार-बार का मरना, इस प्रक्रिया से
यह जीवात्मा तंग आ चुकी है | हे मुरारी ! मुझे इस संसार सागर से बाहर होने का
रास्ता दिखा | संसार सागर को पार करने का सरल रास्ता केवल और केवल एक ही है |
गोविन्द की भक्ति |
गोविन्द को भजने का अर्थ है, इस शरीर
से जो भी कर्म करें, उसे परमात्मा के लिए कर्म करना मानें | प्रत्येक प्राणी के
ह्रदय में परमात्मा निवास करते हैं, उन्हें किसी भी प्रकार का दुःख नहीं पहुंचाएं |
ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते थे कि ‘यह मनुष्य शरीर संसार की सेवा
करने के लिए मिला है | संसार की सेवा करें और संसार से पिंड छुडाएं |’ संसार की
सेवा तभी हो सकती है, जब आप संसार का आश्रय न लेकर परमात्मा का आश्रय लें | एक
परमात्मा का आश्रय ही आपको संसार के दुखों से मुक्ति दिला सकता है | संसार के
दुखों से मुक्ति पा जाना ही संसार सागर के पार चले जाना है | परमात्मा का आश्रय ले
गोविन्द को भजो और उससे प्रार्थना करो |
‘हे परम पूज्य परमात्मा ! मुझे अपनी शरण
में ले लो | मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाना चाहता हूँ | मुझे इस
संसार रुपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो, ईश्वर |’
इसीलिए भज गोविन्दम् में शंकराचार्य महाराज का शिष्य कह रहा है कि -
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम् |
इह संसारे बहु
दुस्तारे, कृपया पारे पाहि मुरारे ||21||
अर्थात बार-बार
जन्मना, बार-बार मरना बार-बार मां के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जाना बहुत ही
कठिन है | हे कृष्ण ! हे मुरारी !! मुझे इस आवागमन से मुक्त कर दे |
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-22
प्रस्तुति – डॉ’
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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