भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.18(कल से आगे)-
अब चर्चा करेंगे इस श्लोक में
निहित अर्थ और भावार्थ की | शंकराचार्यजी महाराज का यह शिष्य कह रहा है कि जो
व्यक्ति देव मंदिर में निवास करता है, जो पेड़ के नीचे रहता है, पृथ्वी पर उसे ही
शैया मानकर सोता है, अकेला रहता है, कुछ भी इकट्ठा नहीं करता और संसार के किसी भी
सुख को नहीं चाहता वह वैरागी है और केवल वही आनंद को उपलब्ध है | देव मंदिर में
निवास करने का अर्थ है स्वयं के द्वारा निर्मित किये संसार के आश्रय को त्यागकर एक
परमात्मा का ही आश्रय स्वीकार कर लेना | पेड़ के नीचे निवास करना अर्थात घर की
आसक्ति का त्याग कर देना | पृथ्वी को ही शैया बना लेना अर्थात जो कुछ मिले जैसे भी
मिले उसी परिस्थिति में रह लेना | अपरिग्रह अर्थात धन, वस्तुओं आदि का संग्रह न
करना | संसार के सभी सुखों का त्याग कर देना |
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जो
व्यक्ति अपनी आवश्यकताएं सीमित कर लेता है, वही व्यक्ति वैराग्य को उपलब्ध होता है
| राग से बाहर निकल जाना, उससे परे हो जाने का नाम ही वैराग्य है | राग क्या है ?
जो कुछ भी हमारे पास है, उसमें संतुष्ट न रहकर और अधिक की चाह करना | हमारे पास
चाहे जितना धन हो जाये, चाहे हम कथित सुख देने वाली अनगिनत वस्तुएं इकट्ठी कर लें,
इन सब का अभाव कभी समाप्त नहीं होगा | इसे ही राग कहते हैं | हमें अपन राग छोड़कर
वैराग्य धारण करना होगा | इसके लिए आवश्यक है कि हम उसी में संतुष्ट रहना सीखें,
जो कुछ भी हमें मिला है | यही सुखी जीवन का रहस्य है | आनंद प्राप्ति के लिए हमें
हमारी आवश्यकताएं सीमित रखनी होगी |
जो इंसान संसार के भौतिक
सुख-सुविधाओं से ऊपर उठ चूका है, जिसके जीवन का लक्ष्य शारीरिक सुख एवं धन और समाज
में प्रतिष्ठा की प्राप्ति करना मात्र ही नहीं है, वह प्राणी अपना सम्पूर्ण जीवन
सुख एवं शांति से व्यतीत करता है | इसीलिए शंकराचार्य महाराज अपने शिष्य की इस बात
का अनुमोदन करते हैं |
सुर-मन्दिर-तरु-मूल-निवासः,
शय्या भूतलमजिनंवासः |
सर्व-परिग्रह-भोग-त्यागः,
कस्य सुखं न करोति विरागः ||18||
अर्थात देव-मंदिर में
निवास, पेड़ के नीचे रहना, जमीन पर अथवा भूमि जैसी शैया पर शयन करना, अकेले रहने
वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से भला किसको आनंद की
प्राप्ति नहीं होगी ?
कल श्लोक सं.19
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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