भज गोविन्दम् – श्लोक
सं,-19(समापन)-
इस श्लोक के विवेचन में अब प्रश्न यह
उठता है कि जब मन को ब्रह्म में ही लगाना ही महत्वपूर्ण है, तो फिर गृहस्थ जीवन
त्यागकर क्यों न संन्यास को ही अपना लिया जाये ? हाँ, यह सत्य है कि संन्यास से जो
प्राप्ति होती है वह गृहस्थ जीवन की तुलना में शीघ्र प्राप्त होती है | सबसे मुख्य
बात तो मन को अमन करना है | जब आप गृहस्थ जीवन को छोड़कर एक संन्यासी का जीवन जीना
प्रारम्भ करते हैं, तो मन फिर भी एक गृहस्थ का बना रह सकता है | यह एक द्वंद्व की स्थिति
उत्पन्न कर देती है, गृहस्थ और संन्यास के मध्य का द्वंद्व | इस द्वंद्व की
परिस्थिति में ज्ञान को उपलब्ध होना सर्वाधिक कठिन कार्य बन जाता है | द्वंद्व व्यक्ति को कहीं का नहीं रहने देता
| मन जब द्वंद्व में रहता है तो न तो हम संसार को छोड़ सकते हैं और न ही ब्रह्म के
संग हो पाते हैं | हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ वाली हो जाती है | इसलिए संसार
से भागकर, गृहस्थ जीवन को त्यागकर ही परमात्मा को पाया जा सकता है, ऐसी बात नहीं
है | हमें अपने गृहस्थ जीवन के उत्तरदायित्व को भी भली-भांति समझना होगा |
उत्तरदायित्व निभाए बिना परिवार को छोड़कर चले जाना पलायन करना कहलाता है | पलायन
वादी न तो संसार को ही पा सकता है और न ही परमात्मा को | ”संसार से भागे फिरते हो,
भगवान को तुम क्या पाओगे”, ऐसा लिखने वाले ने सत्य ही लिखा है |
योग की राह तो हम गृहस्थ बनकर भी पकड़
सकते हैं | जीवन में गृहस्थी के उत्तरदायित्व को पूरा करते हुए भी हम ब्रह्म में अपना
मन लगा सकते हैं | संसार के संग रहते हुए भी हम उससे असंग हो सकते हैं | केवल हमें
इतना ही करना होगा कि हम संसार में भले बने रहें परन्तु हमारे भीतर संसार न रहे |
गृहस्थ जीवन के सभी उत्तरदायित्व पूर्ण करने के उपरांत भी घर को त्यागा जा सकता
है, तब तक सदैव एक ब्रह्म में मन लगाकर गृहस्थ धर्म का पालन करते रहें |
चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने
सांसारिक उत्तरदायित्व को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हम अपने आप को परमात्मा
से जोड़ लें तो हमें सदैव सुख प्राप्त होगा | इस सुख का नाम ही आनंद है, जिसे
परमात्मा में मन लगाने से ही पाया जा सकता है | इस प्रकार आदि गुरु शंकराचार्यजी
महाराज के इस शिष्य का यह कथन शत प्रतिशत सत्य है कि-
योगरतो वा भोगरतो वा
संगरतो वा संगविहीनः |
यस्यब्रह्मणि रमते
चित्तं, नन्दतिनन्दतिनन्दति एव ||19||
अर्थात कोई योग में
लगा हो अथवा भोग में, कोई संग में आसक्त हो अथवा निसंग हो परन्तु जिसका मन ब्रह्म
में लगा है वह सदैव आनंद ही आनंद में रहता है |
“|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.20
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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