भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.-24-
त्वयि मयि चान्यत्रैको
विष्णु:, व्यर्थ कुप्यसि सर्वसहिष्णु: |
भव समचित्तः सर्वत्र
त्वं, वाछंसिअचिराद्यदि विष्णुत्वम् ||24||
अर्थात तुममें,
मुझमें और अन्यत्र सब जगह एक विष्णु ही है | तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो | यदि
तुम शाश्वत विष्णु-पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ
|
संसार में जितने भी जड़ व चेतन दृष्टिगत है
अथवा दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, सब में एक परमात्मा ही उपस्थित है | यह कथन केवल कथन
नहीं है बल्कि एक सार्वभौमिक सत्य है | कई बार हम किसी भी कथन को शास्त्रों तक और
पढ़ने सुनाने तक ही सीमित कर देते हैं, उस कथन पर विश्वास कतई नहीं करते | आज के
वैज्ञानिक युग में ऐसा होना आम बात है | सनातन दर्शन कोई मामूली दर्शन नहीं है, जो
आधारहीन बात करता हो | सनातन धर्म में प्रत्येक बात तथ्यपरक ढंग से कही गयी है और
कोई भी कारण नहीं बनता कि उन बातों पर अविश्वास किया जा सके | परमात्मा की स्फुरणा
से ही इस ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है और इसके निर्माण के पहले केवल एक परमात्मा
ही था | जो ब्रह्माण्ड के निर्माण से पूर्व था, वही इस ब्रह्माण्ड में स्थित होगा ही
और भविष्य में ब्रह्माण्ड की प्रलय के बाद भी वही एक परमात्मा ही रहेगा |
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि
पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न
प्रणश्यति || गीता-6/30||
अर्थात जो पुरुष
मुझे सर्वत्र देखता है और प्रत्येक में मुझे देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं
होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |
कहने का अर्थ यह है कि इस समस्त
संसार में एक वासुदेव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जब वह प्रत्येक स्थान पर है,
तो फिर किसी कारण से हम किसी पार क्रोध करते भी हैं, तो फिर वह क्रोध करना व्यर्थ
है | कौन तो क्रोध करने वाला है और किस पर क्रोध किया जा रहा है | सभी में वह
विष्णु ही है, क्रोध करने वाले में भी और उसमें भी जिस पर क्रोध किया जा रहा है | ऐसे
में कोई भला स्वयं पर क्रोध कैसे और क्यों कर सकता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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