भज गोविन्दम् – श्लोक
सं-26(कल से आगे-7)-
इस प्रकार शंकराचार्यजी महाराज के इस
शिष्य द्वारा कहे गए इस श्लोक के पूर्वार्ध से हम समझ सकते हैं कि शरीर के ये चारों
विकार ही मनुष्य को बंधन में डालते हैं | वे कहते हैं कि इन सभी विकारों का
त्याग कर हमें स्वयं में स्थित होकर विचार करना चाहिए कि कौन हूँ ‘मैं” ? जिस शरीर
को हम अपना मान बैठे हैं, वह तो ‘मैं’ हो नहीं सकता | उस शरीर को ‘मैं’ समझना तो
केवल मोह-माया है | वास्तव में ‘मैं’ है इस शरीर के भीतर बैठा आत्मा, जिसे चैतन्य
भी कहा जाता है | इस चैतन्य के बारे में विचार करना तभी संभव हो पाता है, जब हम इन
चारों विकारों से मुक्त हो जाएँ और बाहर संसार में विचरण करना छोड़ स्वयं के भीतर
प्रवेश कर लें | चारों विकारों से मुक्त होना और ‘स्व’ को पहचान लेना ही
आत्म-ज्ञान है |
अब आते हैं, इस श्लोक के उतरार्ध पर | इस
श्लोक का उतरार्ध कहता है कि जो आत्म-ज्ञान से रहित है वे व्यक्ति मोह में पड़े हैं
और इस मोह-रुपी संसार के नरक में पड़े रहते हैं | मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना ही है
कि वह स्वयं के द्वारा निर्मित संसार से बाहर निकल ही नहीं पाता | ‘स्व’ को नहीं
जान पाने का अर्थ ही है, अज्ञान में पड़े रहना | जो अज्ञानी है, वह सदैव नरक में ही
पड़ा रहता है और नरक है, हमारा यही मोह-रुपी संसार | ‘काम’ ही इस संसार को नरक बना
देता है | काम के कारण ही शेष तीन विकार, क्रोध, लोभ और मोह उत्पन्न होते हैं | हम
सारे संसार पर चारों और दृष्टि डालते हैं, परन्तु स्वयं पर दृष्टि नहीं रख पाते |
स्वयं पर दृष्टि स्वर्ग के दर्शन करा देती है | विभिन्न प्रकार की वासनाओं से बना कीचड़
ही इस संसार को नरक बना देता है | जहाँ दूसरे से सुख पाने की कामना है; वहां कीचड़
ही कीचड़ है, नरक ही नरक है | स्वर्ग और नरक किसी दूसरी दुनियां में नहीं है, ये
दोनों इसी संसार में और हमारे आस-पास ही है | हमें दिखाई इसलिए नहीं पड़ते क्योंकि
हम स्वर्ग और नरक को अपने इस संसार से अलग मानकर बैठे हैं |
एक मृत पिता ने स्वप्न में अपने
पुत्र को दर्शन दिए और कहा कि बेटे तुम भी मेरी तरह अपने संसार में कर्म करते रहो,
पाप-पुण्य का विचार न करो, सही-गलत कर्म का मत सोचो | यहाँ नरक में जगह है ही
नहीं, हम भी उसकी दीवार पर बैठे हैं | तुम आओगे तो दीवार पर भी स्थान नहीं मिलेगा |
कहने को यह एक हास्य हो सकता है परन्तु साथ ही साथ आज के युग की यह वास्तविकता भी
है कि हम यही सोचकर उचित अनुचित कर्म किये जा रहे हैं कि संसार में सभी लोग ऐसा ही
तो कर रहे हैं | जैसा उनका हाल होगा वैसा ही हमारा हो जायेगा | यही अज्ञान है |
हमें अज्ञान से दूर, आत्म-ज्ञान की और जाना होगा |’असतो मा सद्गमय’, ‘तमसो मा
ज्योतिर्गमय’, ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’ |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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