भज गोविन्दम् –
श्लोक सं.-21-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम् |
इह संसारे बहु
दुस्तारे, कृपया पारे पाहि मुरारे ||21||
अर्थात बार-बार
जन्मना, बार-बार मरना बार-बार मां के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जाना बहुत ही
कठिन है | हे कृष्ण ! हे मुरारी !! मुझे इस आवागमन से मुक्त कर दे |
संसार-चक्र क्या है ? इस भौतिक संसार में
प्रतिदिन बहुत से प्राणी जन्म लेते हैं और अनेकों प्राणी मृत्यु को प्राप्त होते
हैं | एक प्राणी का जन्म से लेकर मृत्यु तक और मृत्यु से पुनः जन्म लेने तक का एक
जीवन चक्र है | यह जीवन-चक्र उस एक प्रजाति के प्राणी का है | इसी प्रकार संसार
में मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों की 84 लाख प्रजातियां है और प्रत्येक प्राणी
का अपना एक निजी जीवन चक्र है | यह जीवन चक्र उस प्राणी के भौतिक शरीर की मृत्यु
और जन्म से सम्बंधित है | ऐसा ही जीवन चक्र मनुष्य के शरीर का भी है | मां के गर्भ
से जन्म लेना, बचपन, जवानी, प्रौढ़ व वृद्धावस्था से गुजरते हुए शरीर का मृत्यु को
प्राप्त होना | यह जो विभिन्न शरीरों का जीवन चक्र है यह संसार चक्र का आधार है |
इस प्रकार हम देखते हैं कि संसार का चक्र इन भौतिक शरीरों के जीवन चक्र के कारण ही
सतत गतिमान बना रहता है | जब इन शरीरों का जीवन-चक्र समाप्त हो जायेगा, संसार-चक्र
भी समाप्त हो जायेगा | एक प्राणी के जीवन-चक्र थमने का अर्थ है, उस प्राणी के
संसार-चक्र का मिट जाना जैसे कि डायनासोर का |
हमारा सनातन धर्म आज के विज्ञान से
बहुत आगे हैं | विज्ञान केवल भौतिक सांसारिक चक्र की बात कहता है जबकि हमारा दर्शन
कहता है कि एक प्राणी का जीवन चक्र केवल उस प्राणी के शरीर से ही सम्बंधित नहीं है
बल्कि उस शरीर में स्थित जीवात्मा से सम्बंधित है | वह जीवात्मा एक प्रकार की
प्रजाति के प्राणी के शरीर से दूसरी प्रजाति के शरीर को प्राप्त करती है और उसे
छोड़ किसी अन्य प्रजाति के प्राणी के शरीर को प्राप्त कर लेती है | इसी प्रक्रिया को
आवागमन कहा जाता है | विज्ञान जीवात्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता परन्तु वह
यह भी नहीं जानता कि भौतिक शरीर सक्रिय किस कारण से होता है | हमारा दर्शन कहता है
कि जिस कारण से भौतिक शरीर सक्रिय होता है, वह इस शरीर की तरह जड़ नहीं है बल्कि
चैतन्य है | उस चैतन्य को साधारण भाषा में आत्मा कहा जाता है | आत्मा जब मनुष्य के
शरीर में प्रवेश करती है, तब वह उस शरीर में स्थित मन के साथ अपना तादात्म्य
स्थापित कर जीवात्मा कहलाती है | यह जीवात्मा स्वयं को अपने मूल स्रोत परमात्मा का
अंश न मानकर उस शरीर को ही स्वयं का होना मानने लगती है | यह शरीर जब मृत्यु को
प्राप्त होता है, तब यह जीवात्मा उसे छोड़ अन्य किसी प्राणी के शरीर को अधिग्रहित
कर लेती है | इस प्रकार यह जीवात्मा एक शरीर से दूसरे शरीर की यात्रा करती रहती है
| आत्मा की यह यात्रा तब तक अनवरत चलती रहती है, जब तक कि वह अपने साथ संलग्न मन
का साथ नहीं छोड़ देती |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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