Wednesday, November 1, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.- 16 -

भज गोविन्दम् – श्लोक सं. 16 -
अग्ने वह्निः पृष्ठेभानु:,रात्रौचिबुक-समर्पित-जानु:|
करतलभिक्षातरुतलवासः तदपि न मुंचितआशापाश: ||16||
अर्थात सूर्यास्त के बाद, रात्रि में अग्नि जलाकर और घुटनों में सिर छिपाकर सर्दी से बचने का प्रयास करने वाला, हाथ में रखकर भिक्षा का अन्न खानेवाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को तोड़ नहीं पाता है |
           समय निरंतर चलता रहता है | इसे न कोई रोक पाया है और न ही कोई रोक पायेगा | सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी |
          जब संसार से मनुष्य का मोह भंग होने लगता है तब वह विभिन्न उपाय करता है, उस परम को पाने के लिए | इसके अंतर्गत एक उपाय ‘तप’ करना भी कहा गया है | इसके लिए कई लोग सूर्यास्त के बाद अग्नि को प्रज्वलित कर लेते हैं और उसके पास बैठकर अग्नि की तपिश को सहना सीखते हैं | इसी प्रकार कुछ अन्य लोग भयंकर शीत लहर में नंगे बदन बैठकर सर्दी से बचने के लिए दोनों पैरों को मोड़कर बैठ जाते हैं और दोनों घुटनों के मध्य अपना सिर छिपाकर शरीर को सिकोड़ लेते हैं | इस प्रकार वे सर्दी को सहन करते हैं | कई व्यक्ति भिक्षा में प्राप्त अन्न को अपनी हथेलियों पर रखकर खाने का तप करते हैं और कुछ अन्य लोग घने जंगल में जाकर तप-साधना में लग जाते हैं | कहा जाता है कि ये सभी साधना के अंग हैं | शंकराचार्य महाराज कहते हैं कि इन सब साधनों से भी आपको मोक्ष प्राप्त नहीं होगा | शरीर एक साधन अवश्य है परन्तु मुक्ति के लिए इस साधन को भी चुस्त-दुरुस्त रखना आवश्यक है | जितने भी साधन एक तप के रूप में किये जाते हैं, वे केवल शरीर को पीड़ा ही दे सकते हैं, व्यक्ति को मोक्ष नहीं |
            हमारा शरीर जो कि परमात्मा की ही एक देन है और उसी से जीवन-मुक्त हुआ जा सकता है | इसको पीड़ा पहुँचने से हो सकता है कुछ अनुभवों में इसकी सहन सीमा बढ़ जाये परन्तु केवल सहन सीमा को बढा लेना ही परमात्मा को पा लेना नहीं है | अगर हम भूखे रहकर व्रत करें और दिन भर भोजन का ही चिंतन करते रहें तो ऐसे व्रत से कोई लाभ नहीं होने वाला | आप भंयकर सर्दी में नंगे बदन बैठकर ईश्वर की प्रार्थना कर रहे हो, और शरीर ठण्ड से थर-थर कांप रहा हो तो आपका मन ईश्वर में न लगकर ठण्ड से बचने के उपाय खोजने में लगा रहेगा | भिक्षा के अन्न से जीवन निर्वाह करना आध्यात्मिकता के पथ पर अहंकार को समाप्त करने का एक उपाय मात्र है परन्तु भिक्षा के अन्न को हाथों में लेकर खाना और बर्तनों का सर्वथा त्याग कर देना मात्र एक आडम्बर के सिवाय कुछ भी नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ’ प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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