भज गोविन्दम् –
श्लोक सं.17(कल से आगे)-
इस श्लोक के माध्यम से शंकराचार्य महाराज
के शिष्य का कहना है कि चाहे जितनी कठिन तीर्थ-यात्रा कर ली जाये, कठिन से कठिन
व्रत कर लिए जाये अथवा दान दिया जाये, सौ वर्षों तक ऐसा करने पर भी ये आपको मोक्ष
नहीं दिला सकेंगे | इसका कारण क्या है ?
सबसे बड़ा कारण है कि हमें इस बात का
ज्ञान ही नहीं होता कि तीर्थ-यात्रा, व्रत और दान किस स्थिति में आध्यात्मिकता में
सहयोगी हैं | केवल देखा-देखी इन सबका अनुसरण करना लाभदायक नहीं हो सकता | मैं यह
तो नहीं कह सकता कि इन तीनों का कोई महत्त्व नहीं है परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ
कि बिना जाने-बुझे तीर्थ-यात्रा करना, व्रत रखना अथवा दान करना उपयुक्त फल प्रदान
नहीं करते | इन तीनों के करने के पीछे क्या राज है, यह जानकर इनको करना फिर भी कुछ
उपयोगी है | तीर्थ-यात्रा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल एक वातावरण
निर्मित करती है | इस वातावरण के कारण व्यक्ति की परमात्मा के प्रति अनुरक्ति बढ़ती
है | यह ज्ञान की और जाने का प्रथम चरण है | इसके अतिरिक्त अन्य किसी रूप में यह
यात्रा ज्ञान प्राप्ति में सहयोग नहीं करती है | जब परमात्मा के प्रति अनुरक्ति बढ़ती
है तब उसका पूजा करने का मन करता है | व्यक्ति ऐसे कार्य करना पसंद करता है जो
परमात्मा को प्रिय हों | यह ज्ञान प्राप्ति की और जाने का द्वितीय चरण है | इसके
अंतर्गत व्रत, दान करना, प्रभु की मूर्ति की पूजा करना आदि जैसी स्थूल क्रियाएं
सम्मिलित हैं | प्रायः सभी व्यक्ति इस द्वितीय चरण तक आकर स्थिर हो जाते हैं | इस
चरण तक की उपलब्धि ज्ञान के संदर्भ में नगण्य है | परमात्मा की प्राप्ति अर्थात
परम ज्ञान से यह कोसों दूर है |
उत्तमा सहजावस्था,
मध्यमा ध्यान-धारणा |
अधमा देव पूजाश्च,
तीर्थयात्रा धमाधमा ||
इस
श्लोक के अनुसार व्यक्ति की ज्ञान की अवस्था उसकी सहजावस्था होती है | सबसे उच्च
अवस्था यही है | माध्यम अवस्था है परमात्मा के ध्यान-धारणा की अवस्था | निम्न
अवस्था है, केवल पूजा-पथ, व्रत, दान आदि स्थूल क्रियाओं में ही रमे रहना और
निम्नतर अवस्था है, केवल तीर्थाटन ही करते रहने की |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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