भज गोविन्दम् –
श्लोक सं.17-
कुरुते गंगासागरगमनं,
वृतपरिपालनमथवादानम् |
ज्ञानविहीन:सर्वमतेन
मुक्तिः, न भवति जन्मशतेन ||17||
अर्थात संसार का
प्रत्येक धर्म कहता है कि बिना ज्ञान प्राप्त किये मुक्त नहीं हुआ जा सकता | केवल
गंगासागर जाकर स्नान करने से, व्रतादि कर लेने से अथवा दान देने से भी सौ जन्मों
में भी मुक्ति नहीं हो सकती | हमें मुक्ति की प्राप्ति सिर्फ आत्मज्ञान के द्वारा
प्राप्त हो सकती है | लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम
ज्ञान अथवा मोक्ष प्राप्त नहीं होगा |
भज गोविन्दम् के 16 वें श्लोक को
कहने वाले शिष्य की उसी बात को और स्पष्ट करते हुए अन्य एक शिष्य कह रहा है कि संसार
में जितने भी धर्म प्रचलित है, वे सभी धर्म यह कहते हैं कि बिना ज्ञान प्राप्त
किये सांसारिक बंधनों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता | हमारे धर्म में जितने भी
शास्त्र हैं, वे सब ज्ञान को प्रथम स्थान देते हैं | ज्ञान को ही पूर्ण रूप से
स्पष्ट करने के लिए वेदों से उपनिषद् लिखे गए | श्री मद्भगवद्गीता भी एक उपनिषद है
| उपनिषदों को कथा-कहानी के माध्यम से स्पष्ट करने के लिए 18 पुराणों की रचना की
गयी | समय-समय पर विभिन्न महापुरुषों ने इन ग्रंथों को और अधिक स्पष्ट करने के लिए
उनकी व्याख्याएं की है | स्थानीय भाषाओं में इन ग्रंथों के अनुवाद भी हुए हैं |
फिर भी हम आसान और सुगम रास्ते की तलाश में ज्ञान को पाने का प्रयास छोड़ तीर्थ यात्राओं
पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं | शंकराचार्यजी के समय गंगासागर की तीर्थ यात्रा
को कठिनतम यात्रा माना जाता था |
तीर्थ यात्रा के साथ-साथ परमात्मा की
पूजा के लिए विभिन्न अवसरों पर व्रत आदि भी किये जाते थे | तप की तरह व्रत भी शरीर
को कष्ट देकर सहनशील बनाने का एक उपक्रम है | पूजा की विधियों के अंतर्गत ही दान
और व्रत आते हैं | जिसके पास बहुत अधिक धन सम्पति होती थी वह उसका कुछ भाग दान करता है उससे उसको एक प्रकार की आत्म संतुष्टि भी मिलती है | दान जब लोक प्रशंसा के
उद्देश्य से किया जाता है तो वह दान निम्नतम श्रेणी का दान कहलाता है | दान के
बारे में कहा जाता है कि दान सुपात्र अर्थात किसी योग्य व्यक्ति को किया जाना
चाहिए और दान की जाने वाली राशि भी उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने वाली होनी चाहिए |
अल्प दान ऊँट के मुंह में जीरे के समान होगा जो भूख को तीव्र कर देता है | इस
प्रकार अल्प दान और लोक-प्रशंसा के लिए किये जाने वाले दान से सदैव बचना चाहिए |
दान के प्रतिफल के रूप में किसी बात की आशा नहीं रखनी चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment