Monday, November 20, 2017

भज गोविन्दम् -श्लोक सं.-25

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-25-
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ |
सर्वस्मिन्न पिपश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ||25||
अर्थात शत्रु, मित्र, पुत्र, बंधु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो | सब में अपने आप को हो देखो | इस प्रकार सर्वत्र भेद रुपी अज्ञान को त्याग दो |
               आदि गुरु शंकराचार्यजी महाराज के जिस शिष्य ने भज गोविन्दम् का 24 वें श्लोक में जो कुछ कहा है, उसी कथन को आगे बढ़ाते हुए एक और शिष्य कहता है कि जब आप सर्वत्र सामान चित्त वाले हो जाओगे तो फिर आप प्रत्येक शत्रु, मित्र, पुत्र और बंधु से प्रेम करने लगोगे | समता भाव पैदा करने के लिए यह आवश्यक है कि हम संसार के प्रत्येक प्राणी से प्रेम भाव रखें | यहाँ प्रश्न यह पैदा होता है कि पुत्र, बंधु और मित्र से तो प्रेम भाव रखा जा सकता है परन्तु एक शत्रु से प्रेम कैसे किया जाये | शत्रु का कभी भी अहित न सोचें, केवल इतना कर लेने मात्र से ही आपका चित्त समता में रह सकता है | शत्रु से आपका व्यक्तिगत और सांसारिक मतभेद हो सकता है परन्तु आखिर परमात्मा उसमें भी निवास कर रहे हैं | भला, आप जब विष्णु पद को पाने की और अग्रसर हैं तो आपको अपने शत्रु में भी विष्णु नज़र आने चाहिए | जब आप अपने शत्रु में भी परमात्मा को देखने लगोगे तो आप अपने शत्रु का अहित सोच भी नहीं सकते, अहित करना तो बहुत दूर की बात होगी | अंततः शत्रु को भी क्षमा किया जा सकता है |
              इसी प्रकार किसी मित्र, पुत्र और बन्धु के प्रति मोह की सीमा तक प्रेम भी न करो | यहाँ प्रेम न करने का अर्थ यह नहीं है कि किसी से भी प्रेम न करो | प्रेम और मोह में बड़ा अंतर है | मोह जब प्रेम का स्थान ले लेता है, तब वह अनुचित है | प्रेम ज्ञान से उत्पन्न होता है और मोह अज्ञान का ही एक रूप है | हम पुत्र, मित्रादि से मोह रखते हैं और उसे प्रेम का नाम दे देते हैं | प्रेम कभी भी प्रतिदान नहीं चाहता | क्या हम अपने पुत्र और मित्र से उस प्रेम के बदले प्रतिदान नहीं चाहते ?  अगर हम प्रतिदान नहीं चाहते तो वह वास्तव में प्रेम है | अगर हम उस प्रेम के बदले प्रतिदान की आकांक्षा रखते हैं तो हम मोह को ही प्रेम का नाम दे रहे हैं | यह बात सदैव ध्यान में रखें कि न तो किसी में अत्यधिक मोह रखो और न ही किसी से घृणा करो |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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