भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.24(समापन)-
संसार के कण-कण में परमात्मा का वास है |
कोई भी प्राणी ईश्वर की कृपा से अछूता नहीं है | यह मान लेना सत्य को स्वीकार कर
लेना है | जब इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में परमात्मा का वास है इसका अर्थ है
कि हमारे भीतर भी परमात्मा ही निवास कर रहे हैं | गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते
हैं –
अहमात्मा गुडाकेश
सर्वभूताशय स्थितः |
अहमादिश्च मध्यं च
भूतानामन्त एव च || गीता-10/20 ||
अर्थात हे अर्जुन !
मैं सब प्राणियों में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सभी भूतों का आदि, मध्य और अंत भी
मैं ही हूँ |
सभी प्राणियों के भीतर परमात्मा आत्मा
के रूप में निवास करते हैं | परमात्मा का अंश आत्मा है और उसी के कारण ही यह भौतिक
शरीर सक्रिय रहता है | जिस दिन इस शरीर को आत्मा छोड़कर चली जाएगी, यह शरीर मृत
होकर किसी काम का नहीं रहेगा | स्वयं के भीतर उपस्थित परमात्मा की उपस्थिति को
पहचान लेना ही विष्णु पद को प्राप्त कर लेना है | यही आत्म-बोध भी है और यही परम-ज्ञान
है | जिस दिन हमें यह ज्ञान उपलब्ध हो जायेगा, हमारा चित्त भी इधर उधर भटकना छोड़ देगा
और व्यक्ति स्थितप्रज्ञ हो जायेगा | स्थितप्रज्ञ पुरुष ही समान चित्त वाला होता है
और सभी प्राणियों को समान भाव से देखता है | जब चित्त सर्वत्र समान भाव वाला हो
जाता है तो व्यक्ति के जीवन में सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि का कोई स्थान नहीं रहता
और न ही वह विषम स्थिति में विचलित होता है और न ही किसी प्रकार के मान-सम्मान की
चाहना रखता है | इसीलिए शंकराचार्यजी का यह शिष्य कह रहा है कि अगर अपने भीतर बैठे
विष्णु को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ |
त्वयि मयि चान्यत्रैको
विष्णु:, व्यर्थ कुप्यसि सर्वसहिष्णु: |
भव समचित्तः सर्वत्र
त्वं, वाछंसिअचिराद्यदि विष्णुत्वम् ||24||
अर्थात तुममें,
मुझमें और अन्यत्र सब जगह एक विष्णु ही है | तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो | यदि
तुम शाश्वत विष्णु-पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ
|
“|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-25
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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