भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.25(समापन)-
हमें न ही किसी से अत्यधिक प्रेम(मोह)
करना चाहिए और न ही घृणा | सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है | हमें सबको एक ही
दृष्टि से देखना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए क्योंकि तभी हम परमात्मा का आदर कर
पाएंगे | इस संसार के प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का वास है | यह सत्य बात स्वीकार
कर सभी हमारी ही तरह है | स्वयं में और किसी अन्य में भेद दृष्टि न रखें | जैसे आप
हैं, वैसे ही संसार के सभी प्राणी हैं | यह दृष्टि हमें समता की और ले जाती है |
समता न तो मोह में डालती है और न ही किसी के प्रति घृणा पैदा होने देती है |
जब भेद दृष्टि होती है तभी मोह और
घृणा के पैदा होने की सम्भावना रहती है | मोह-घृणा, राग-द्वेष सभी विकार अज्ञान की
देन है | हमें अज्ञान त्यागकर ज्ञान को उपलब्ध होना है | संसार में जितने भी विकार
हैं सबका कारण अज्ञान है | ज्ञान जब हमें उपलब्ध हो जाता है, तब सांसारिक विकार
स्वतः ही दूर हो जाते हैं | हमारी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि स्वयं को दूसरे से भिन्न
मानते हैं | गीता में भगवान कहते हैं कि-
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे
गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च
पण्डिताः समदर्शिनः || गीता-5/18 ||
अर्थात ज्ञानीजन
विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समदर्शी
होते हैं |
जब संसार में ब्राह्मण, हाथी, गाय, कुत्ते
और चांडाल में कोई भेद नहीं है तो हमें यह भेद दिखाई क्यों देता है ? यह भेद हमें
इसलिए दिखाई पड़ता है क्योंकि हम उन्हें आत्मिक स्तर पर अपने समान नहीं समझते हैं |
आत्मिक स्तर पर हम सब एक समान हैं | हाँ, व्यवहार की दृष्टि से कुछ भेद होना
स्वाभाविक है परन्तु हम व्यवहार के स्तर पर रखे जाने वाले भेद को आत्मिक स्तर का
भेद मान लेते हैं; जो कि अनुचित है | व्यवहार सबके साथ समान नहीं हो सकता परन्तु
आत्मिक स्तर पर किसी शत्रु, मित्र आदि में अंतर नहीं समझना चाहिए | जब हम सबको आत्मिक
स्तर पर एक समान समझेंगे तो फिर न तो किसी के प्रति हम मोहग्रस्त होंगे और न ही
किसी से घृणा कर सकेंगे | इसीलिए शंकराचार्यजी महाराज का यह शिष्य कह रहा है कि-
शत्रौमित्रेपुत्रेबन्धौ,
मा कुरु यत्नंविग्रहसन्धौ |
सर्वस्मिन्नपिपश्यात्मानंसर्वत्रोत्सृजभेदाज्ञानम्
||25||
अर्थात शत्रु, मित्र,
पुत्र, बंधु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो | सब में अपने आप को हो देखो | इस
प्रकार सर्वत्र भेद रुपी अज्ञान को त्याग दो |
“|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-26
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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