Thursday, November 2, 2017

भज गोविन्दम्य - श्लोक सं. - 16 (समापन) -

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.16 (समापन)-
        इस श्लोक के माध्यम से शंकराचार्य के शिष्य उन्हीं से प्राप्त ज्ञान के आधार पर कह रहे हैं कि जितने भी तप के साधन है, केवल उनको करने मात्र से ही हम मोक्ष के अधिकारी नहीं हो जायेंगे | मनुष्य का बंधन क्या है ? यह ज्ञान हो जाने पर वह उस बंधन को तोड़कर ही वह मुक्त हो सकता है | हमारा बंधन है, यह स्व निर्मित संसार जो कि हमारी इच्छाओं की बुनियाद पर खड़ा है | जब तक हम अपने मन पर, अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रखेंगे तब तक तप के ऐसे उपाय निरर्थक हैं | अगर साधना ही है तो अपने मन को साधो, इस भौतिक शरीर को नहीं | भौतिक शरीर तो एक साधन मात्र है और अगर उस साधन को भी विकार ग्रस्त कर दिया तो फिर इस मन को साधना कैसे हो पायेगा ? मुक्ति शरीर को नहीं चाहिए, मुक्ति चाहिए इस मन को | मन को इच्छाओं से मुक्त कीजिये, मोक्ष आपको स्वतः ही उपलब्ध हो जायेगा |
                यह कहना कि शरीर को तपाने से मोक्ष हो जायेगा यह उतना ही असत्य है जितना एक कबूतर द्वारा आँख बंद कर बिल्ली का वहां से चले जाना मान लेना | कबूतर आँख बंद कर लेता है तो वह उस बिल्ली का शिकार बन जाता है और इच्छाओं को नियंत्रित न कर केवल शरीर को कष्ट देने से शरीर में विकार पैदा हो जाते हैं | कबूतर को चाहिए था कि वह आंखें बंद करने के स्थान पर उस बिल्ली की दृष्टि से ओझल हो जाता | व्यक्ति को चाहिए कि तप से शरीर को सहनशील बनाने के स्थान पर मन को नियंत्रित कर उसे सहनशील बनाये और उसमें उठ रही विभिन्न प्रकार की कामनाओं और इच्छाओं पर अंकुश लगाये | मन में जन्म लेने वाली विभिन्न प्रकार की कामनाएं ही व्यक्ति को बाँध लेती है और यह मन का बंधन किसी भी प्रकार के तप से नहीं टूट सकता इस बंधन से केवल इच्छाओं और मन पर नियंत्रण स्थापित करके ही मुक्त हुआ जा सकता है | इसीलिए शंकराचार्य महाराज का यह शिष्य कह रहा है कि-
अग्ने वह्निः पृष्ठेभानु:,रात्रौचिबुक-समर्पित-जानु:|
करतलभिक्षातरुतलवासः तदपि न मुंचितआशापाश: ||16||
अर्थात सूर्यास्त के बाद, रात्रि में अग्नि जलाकर और घुटनों में सिर छिपाकर सर्दी से बचने का प्रयास करने वाला, हाथ में रखकर भिक्षा का अन्न खानेवाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को तोड़ नहीं पाता है |
“||भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं. 17
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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