भज गोविन्दम् –
श्लोक सं.-26-
कामं क्रोधं लोभं मोहं,
त्यक्त्वाSत्मानं भावय कोSहम् |
आत्मज्ञान विहीना मूढा:,
ते पच्यन्ते नरकनिगुढा: ||26||
अर्थात काम, क्रोध,
लोभ, मोह को छोड़कर स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ ? जो आत्म-ज्ञान
से रहित मोह में पड़े व्यक्ति हैं, वो बार-बार इस मोह-रुपी संसार के नरक में पड़ते
रहते हैं |
मेरी
दृष्टि में यह श्लोक भज गोविन्दम् का सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्लोक है | आदि गुरु
शंकराचार्यजी महाराज और उनके शिष्यों की एक बहुत बड़ी विशेषता है, वे व्यक्ति के मर्म-स्थल पर चोट करते हैं | भज गोविन्दम् कृति में
उन्होंने कर्म-कांडों की आलोचना करते हुए वास्तविक भक्ति को उनसे कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण बताया है | साथ ही साथ वे मनुष्य के सांसारिक बंधनों पर सटीक चोट
करते हुए उन्हें भी तोड़ने का आग्रह करते है | उन्होंने इन बंधनों को तोड़ने का न
केवल आग्रह ही किया है बल्कि उन बंधनों को काट डालने के उपाय तक बताये हैं | इस
श्लोक में सांसारिक बंधन को स्पष्ट करते हैं और कहते हैं कि मनुष्य स्वयं ही इन
बंधनों में बंधकर नरक जैसी स्थिति को प्राप्त हुआ है | यह सब उसका अज्ञान है |
अज्ञान से ज्ञान की और जाने से ही यह सब बंधन कटेंगे, नहीं तो वह सदैव नरक में ही
पड़ा रहेगा |
सांसारिक बंधन पैदा होते हैं,
सांसारिक विकारों से | मनुष्य को सदैव संसार अपनी ओर आकर्षित करता है | संसार का
आकर्षण संसार की प्रकृति है | हमारी गलती है कि हम इस संसार के आकर्षण में
जानबूझकर फंस जाते हैं | हम क्यों संसार के आकर्षण के शिकार हो जाते हैं ? इसका कारण
हमारे स्वयं के भीतर ही है, और वह है हमारे विकार | जिसे हम हमारे विकार कहते हैं,
वे ही संसार के आकर्षण का कारण बनते हैं | अगर हम अपने विकारों से ऊपर उठ जाएँ तो
संसार हमें आकर्षित कर ही नहीं सकता |
हम अपने भीतर उन विकारों का त्याग
क्यों नहीं कर सकते ? ये विकार हमें शारीरिक सुख देने का आधार है | हम स्वयं को
शरीर मान लेते हैं, तब हमें ये शारीरिक सुख अच्छे लगते हैं | शारीरिक सुख और
सांसारिक सुख, दोनों एक ही हैं | हम शरीर न होकर आत्मा है, इस बात को स्वीकार न कर
पाने से ही हमें सांसारिक सुख अच्छा प्रतीत होता है | यही हमारा अज्ञान है | जब
हमें शास्त्रों के पठन और गुरु के सानिध्य से आत्म-ज्ञान हो जाता है, तब हम समझ
पाते हैं कि हम शरीर न होकर आत्मा हैं | तभी वास्तविकता से हमारा सामना होता है और
हम पाते हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक और असत्य है जबकि आत्मिक सुख सत्य और आनंदित
करने वाला है | सांसारिक सुख अस्थाई है जबकि आत्मिक सुख स्थाई |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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