भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.-23-
कस्त्वंकोSहं कुत
आयातः, का में जननी को में तातः |
इति परिभावय सर्वमसारम्
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ||23||
अर्थात तुम कौन हो,
मैं कौन हूँ, हम कहाँ से आये हैं, मेरी मां कौन है, मेरा पिता कौन है ? सब प्रकार
से समझकर इस संसार को असार समझकर एक स्वप्न के समान त्याग दो |
शंकराचार्यजी महाराज के द्वारा जो बात 8 वें श्लोक में कही गयी है, उन्हीं
का एक शिष्य उसी बात को पुनः दोहराता है | हम कौन हैं और कहाँ से आये हैं ? इस
भौतिक शरीर को उत्पन्न करने वाले माता-पिता ही क्या हमारे वास्तविक माता पिता हैं ?
इस बात पर कभी विचार करते भी तो नहीं हैं | जब विचार करेंगे तो पाएंगे कि हमारे
शरीर का, हमारे माता-पिता आदि सम्बन्धियों का अस्तित्व भी एक स्वप्न से अधिक नहीं
है | हम प्रत्येक रात्रि को सपने देखते हैं | क्या उस सपने में देखे हुए घटनाक्रम
पर विचार कर हम सुखी-दुःखी होते हैं ? नहीं, हमारे ऊपर ऐसे देखे गए सपनों का कोई प्रभाव
नहीं पड़ता है | फिर इस परिवर्तनशील संसार की विभिन्न घटनाओं का प्रभाव हमारे ऊपर
क्यों पड़ता है ?
इसका एक ही मुख्य कारण है, हम
संसार में सदैव आसक्त रहते हैं परन्तु सपनों में नहीं | जिस दिन हम संसार को भी सपने
जितना ही महत्त्व देने लगेंगे अर्थात संसार में भी
सपने की तरह आसक्ति नहीं होगी, तत्काल ही हम मुक्त हो जायेंगे | हम संसार से प्रभावित
उसमें अपनी आसक्ति के कारण होते है अन्यथा हमें संसार की कोई ताकत प्रभावित नहीं
कर सकती | हम शरीर नहीं, बल्कि आत्मा है और एक परमात्मा ही हमारे माता-पिता हैं
ऐसा मान लेना ही सत्य को स्वीकार कर लेना है | हम कौन हैं ? हम कहाँ से आये हैं ? हमारा
इस संसार में क्या है ? ऐसी बातों पर चिंता कर के हमें अपना समय व्यर्थ नहीं करना
चाहिए | यह संसार एक स्वप्न की तरह ही झूठा और क्षण भंगुर है | यह शिष्य
शंकराचार्यजी महाराज की इसी बात को पुनः याद दिला रहा है कि-
कस्त्वंकोSहं कुत
आयातः, का में जननी को में तातः |
इति परिभावय सर्वमसारम्
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ||23||
अर्थात तुम कौन हो,
मैं कौन हूँ, हम कहाँ से आये हैं, मेरी मां कौन है, मेरा पिता कौन है ? सब प्रकार
से समझकर इस संसार को असार समझकर एक स्वप्न के समान त्याग दो |
“|| भज गोविन्दं भज
गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-24
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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