Wednesday, November 15, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-22

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-22-
रथ्याचर्पट-विरचित-कन्थः, पुण्यापुण्य-विवर्जित-पन्थः |
योगी योग नियोजित चित्तः, रमते बालोन्मत्त्वदेव ||22||
अर्थात रथ के नीचे आने से फटे हुए पकडे पहनने वाले, पाप-पुण्य से मुक्त राह पर चलने वाले, योग में चित्त को लगाने वाले योगी बालक के सामान सदैव आनंद में रहते हैं |
              इस श्लोक में शंकराचार्यजी का एक शिष्य यह कहना चाहता है कि संसार की विषमता भरी परिस्थितियों से तनिक भी प्रभावित नहीं होने वाला मनुष्य ही आनंद को उपलब्ध हो सकता है | संसार के रथ का चक्र इस प्रकार चलता है कि अनेकों प्राणी इसके नीचे आकर पिसते रहते हैं, जिसके कारण उसका शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाता है | यह सब आपके पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के भोग मात्र हैं | उन्हें भोगना ही आपकी नियति है | उन भोगों से बचकर आप कहीं जा नहीं सकते | इनसे बचने के लिए कितने ही दूर भागो, फिर भी ये आपके वे कर्म आपका पीछा नहीं छोड़ने वाले | कर्म आपके द्वारा ही किये गए हैं और उन कर्मों के फल को भी आपको ही भोगना होगा | जो भी कर्म किये जाते हैं, वे कभी नष्ट नहीं हो सकते | जब कर्मों को आप नष्ट नहीं कर सकते, तो फिर उनको क्यों न बिना विचलित हुए भोगा जाये |
       मनुष्य कर्म करता है, पाप और पुण्य को ध्यान में रखकर | देखा जाये तो पाप-पुण्य का निर्धारण हम स्वयं कर ही नहीं सकते | जो कर्म आप पुण्य को ध्यान में रखकर कर रहे हैं, हो सकता है वे पाप-कर्म बन जाये क्योंकि आपके द्वारा किये जाने वाले कर्म केवल किसी एक आधार से ही पाप-पुण्य निश्चित नहीं हो सकते | राजा प्रतापभानु ने पुण्य-कर्म मानकर द्विजों को भोजन के लिए आमंत्रित किया था ? परन्तु उसका परिणाम पाप-कर्म के रूप में उसे मिला | कहने का अर्थ यह है कि आपका कर्म चाहे पुण्य के लिए हुए हों, परन्तु किसी दूसरे व्यक्ति के कर्म भी आपके इन कर्मों को प्रभावित कर पाप-कर्म में परिवर्तित कर सकते हैं | इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है –‘गहना कर्मणो गतिः’ अर्थात कर्मों की गति बड़ी गहन है | गीता इस बात को स्पष्ट करती है और कहती है कि आपका अधिकार केवल कर्म करने का है, उसके परिणाम पर आपका कोई अधिकार नहीं है | अतः हमें केवल कर्म करते रहना है, उन कर्मों से मिलने वाले पाप-पुण्य का मन में ध्यान नहीं रखना है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ’ प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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