भज गोविन्दम् – श्लोक
सं.26(कल से आगे-5)-
हमारे शास्त्र इतने अधिक स्पष्ट हैं
कि उनकी विश्वसनीयता पर कोई भी व्यक्ति प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता | इन शास्त्रों
पर अंगुली वही उठाता है जिसने इनका मर्म समझा ही नहीं है | ‘काम’ के बारे में बहुत
ही गलत धारणाएं समाज और सभ्य लोगों तक में व्याप्त हो रखी है, जिसका एक मात्र कारण
इन शास्त्रों में वर्णित ‘काम’ को सही रूप से समझा ही नहीं गया है | सबसे बड़ी
भ्रान्ति तो यह है कि ‘काम’ को केवल स्त्री भोग से जोड़ दिया गया है | दूसरी
भ्रान्ति ‘काम’ को मारने के सम्बन्ध में है कि ‘काम’ को मरने का अर्थ कर्म न करना
है | मैं चाहता हूँ कि आप सर्वप्रथम ‘काम’ को समझे | ‘काम’ का अर्थ केवल
स्त्री-भोग ही नहीं है बल्कि प्रत्येक वह कर्म है जिसके करने के पीछे किसी अन्य से
सुख पाने की कामना मन में रहती है | वह कामना स्त्री-भोग भी हो सकती है, स्वादिष्ट
भोजन पाने की भी हो सकती है, स्वयं की प्रशंसा सुनने की भी हो सकती है, धन को पाने
और उससे मिलने वाले सुख और मान-सम्मान पाने की चाह भी हो सकती है आदि अनेकानेक
कामनाएं हो सकती है. जिनसे हमें किसी अन्य के द्वारा उपलब्ध होने की आशा रहती है |
अतः ‘काम’ का अर्थ केवल कर्म से ही नहीं है बल्कि प्रत्येक ऐसे कर्म से है जिसमें
किसी दूसरे से हमें सुख मिलने की आशा रहती है |
‘काम’ को मारने का अर्थ यह कदापि
नहीं है कि सभी प्रकार के कर्म करने छोड़ दिए जाएँ | गीता में भगवान श्री कृष्ण
अर्जुन को कहते हैं कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षण कर्म किये बिना
रह ही नहीं सकता | यहाँ तक कि परमात्मा भी इस जगत में जन्म लेकर जब-जब आते हैं, तब-तब
उन्हें भी कर्म करने पड़ते हैं | ‘काम’ को मारने का अर्थ है आसक्ति-भाव रखते हुए
कर्म न करना | स्त्री से मोह न रखने का अर्थ उसको छोड़ कर कहीं दूर चले जाना नहीं
है | हो सकता है कि आप उसे छोड़ दूर कहीं जंगल में चले भी जाएँ परन्तु आप उसे अपने
मन से दूर नहीं कर सकते | मन से दूर न करने का अर्थ है, अभी भी आप में स्त्री के
प्रति ‘काम-भाव’ है | स्त्री, धन, परिवार आदि सभी सांसारिक भोगों को भोगो परन्तु
यह भोग त्याग पूर्वक होने चाहिए अर्थात उन भोगों के प्रति अनासक्त भाव होना चाहिए |
अनासक्त होना अर्थात न तो भोगों में आसक्ति और न ही विरक्ति | एक आदर्श गृहस्थ के
लिए अनासक्त होना बहुत आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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