भज गोविन्दम् –श्लोक
सं.26(कल से आगे-2)-
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने
स्पष्ट कर दिया है कि क्रोध का मूल काम ही है | क्रोध के बाद विकार आता है, लोभ |
काम जब पूरा नहीं होता अर्थात व्यक्ति की जब कामनाएं पूरी नहीं होती तब क्रोध
उत्पन्न होता है और जब उसकी कामना पूरी हो जाती है, तब लोभ पैदा होता है | लोभ का
अर्थ है, जितना प्राप्त कर लिया गया है, उसमें संतुष्ट न रहकर और अधिक को प्राप्त
करने की कामना करना | इसी लोभ प्रवृति के कारण ही ऐसा कहा जाता है कि कामनाओं का
कभी अंत नहीं होता | जब मनुष्य की एक कामना पूरी होती है, लोभ के कारण उसमें तुरंत
ही एक नई कामना का जन्म हो जाता है |
लोभ के बाद का विकार है, मोह | काम से
होते हुए व्यक्ति जब लोभ तक आ पहुंचता है, तब वह मोह नामक विकार की पकड़ में आ जाता
है | मोह की यह पकड़ ही सांसारिक बंधन कहलाती है, जिससे मुक्त होने का सभी आग्रह
करते हैं | मोह क्या है ? मोह नाम है अज्ञान का | काम से पैदा हुए क्रोध और लोभ
मनुष्य के लिए उसके लिए एक संसार का निर्माण कर देते हैं | इस संसार के प्रति जो
आसक्ति व्यक्ति के भीतर पैदा हो जाती है उसी को मोह कहते हैं | यह सब प्रथम और
मुख्य विकार काम का ही परिणाम है | शरीर को ही ‘मैं’ समझ लेना ही मोह है | व्यक्ति
के काम विकार से उत्पन्न हुआ उसका यह संसार झूठा है | इस झूठे संसार को ही माया
कहकर संबोधित किया जाता है | इस झूठे संसार अर्थात माया के प्रति व्यक्ति की आसक्ति
को ही मोह-माया कहा जाता है | मोह-माया की नींव काम है | इसीलिए भगवान श्री कृष्ण गीता
में अर्जुन को कहते हैं कि तू, सबसे पहले बलपूर्वक इस पापी काम को मार डाल |
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं
ज्ञानविज्ञाननाशनम् ||गीता- 3/41||
अर्थात हे अर्जुन,
तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान
पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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