Monday, November 6, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-18

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.18 -
सुर-मन्दिर-तरु-मूल-निवासः, शय्या भूतलमजिनंवासः |
सर्व-परिग्रह-भोग-त्यागः, कस्य सुखं न करोति विरागः ||18||
अर्थात देव-मंदिर में निवास, पेड़ के नीचे रहना, जमीन पर अथवा भूमि जैसी शैया पर शयन करना, अकेले रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से भला किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी ?    
            जो चर्चा शंकराचार्य महाराज के शिष्य ने 16 वें श्लोक में प्रारम्भ की थी, दूसरे शिष्य ने १७वेन श्लोक में उसे और स्पष्ट किया और अब अगला शिष्य इस श्लोक में इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए दुखों के पार जाने की राह दिखला रहा है | हमारे कर्म-कांड और क्रियाएं इतनी अधिक हैं कि हम सभी इनको करने में ही लगे रहते हैं | जब एक क्रिया को करते–करते हम थक जाते हैं और स्वयं में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं देखते, तब हम उसे त्यागकर एक अन्य नई क्रिया करने की ओर आकर्षित हो जाते हैं | संसार दुखों का सागर है, इस बात में कोई मत भिन्नता नहीं है | परन्तु इस सागर को पार करने के लिए सुदृढ़ नौका की आवश्यकता होती है, न कि छोटे मोटे तिनकों की | पिछले श्लोक में व्यक्ति जो क्रियाएं करता है, उनमें त्याग की बात केवल एक दान के विषय में ही कही जा सकती है | हमें सर्वप्रथम यह जानने का प्रयास करना होगा कि इस संसार को दुःख का सागर क्यों कहा गया है ? संसार में दुःख भी है और सुख भी | सुख उसी को कहते हैं, जहाँ दुःख न हो | सुख की वैसे कोई उपस्थिति इस संसार में है ही नहीं | केवल दुःख की घटती मात्रा को हम सुख कह देते हैं और जब यह दुःख की घटी मात्रा पुनः बढ़ती है तब उसे दुःख का आना कह देते हैं | सुख-दुःख जैसी कोई अवस्था इस जीवन में है ही नहीं | सब मन की अवस्थाओं का नाम परिवर्तन मात्र है | आत्मा इन अवस्थाओं से सदैव अछूती रहती है |
                मन के अनुरूप ही यह शरीर कार्य करता है | शरीर और सांसारिक मन से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है | जब आत्मा मन के साथ हो जाती है तब उसी मन के कारण ही हमें अर्थात आत्मा को नए-नए शरीरों में जाना पड़ता है | उसका कारण है, हमारे (आत्मा) द्वारा शरीर को ही स्वयं होना मान लेना | जब मन किसी सुख की चाह करता है तब शरीर उसी अनुसार कर्म कर वह सुख उपलब्ध कराता है | जब कर्म उस सुख के अनुरूप नहीं हो पाते हैं, तब मन को दुःख होता है | ऐसे ही सुख को प्राप्त करने के लिए हम हमारी आवश्यकताएं विलासिता की सीमा तक बढ़ा लेते हैं | जिस दिन हम अपनी इन इच्छाओं और आवश्यकताओं पर लगाम लगा लेंगे, फिर हमें न तो दुःख मिलेगा और न ही सुख | तब हम आनंद की अवस्था में पहुँच जायेंगे | सदैव आनंद ही आनंद | 
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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