Wednesday, November 8, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-19

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.19-
योगरतो वा भोगरतो वा संगरतो वा संगविहीनः |
यस्यब्रह्मणि रमते चित्तं, नन्दतिनन्दतिनन्दति एव ||19||
अर्थात कोई योग में लगा हो अथवा भोग में, कोई संग में आसक्त हो अथवा निसंग हो परन्तु जिसका मन ब्रह्म में लगा है वह सदैव आनंद ही आनंद में रहता है |
            संसार में प्रत्येक व्यक्ति केवल दो ही कार्यों में व्यस्त है - या तो वह योग में व्यस्त है अथवा विभिन्न प्रकार के भोगों को प्राप्त करने में व्यस्त है | कोई संसार में रहते हुए व्यस्त है और कोई संसार से दूर होकर व्यस्त है | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा भी है कि इस संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य किसी भी काल (समय) में कर्म किये बिना एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता | कहने का अर्थ यह है कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी कार्य को करने में व्यस्त रहता ही है | वह कर्म करने को त्याग ही नहीं सकता | जो व्यक्ति परमात्मा को पाना चाहता है, वह योग के माध्यम से अपना प्रयास कर रहा है | जो संसार के संग रहते हुए भी अगर ब्रह्म में मन लगाये रखता है, तो भी वह परमात्मा को प्राप्त करने की राह में अग्रसर है |
               यह संसार तभी तक बंधन है जब तक हम उसमें आसक्त हैं | आसक्ति का त्याग तभी हो पाता है, जब हम अपने मन को परमात्मा में लगा दें | परमात्मा में मन लगाते ही हमें इस संसार में रहना भी आ जाता है | फिर हम प्रत्येक बात को, प्रत्येक घटना को परमात्मा की इच्छा मानकर स्वीकार करना सीख जाते हैं | शंकराचार्यजी का यह कथन विशेष रूप से एक गृहस्थ जीवन के लिए कहा गया है | गृहस्थ जीवन एक ऐसा जीवन है, जहाँ विभिन्न प्रकार की समस्याएं आती जाती रहती हैं | इन समस्याओं से पार चले जाना तभी संभव हो पाता है, जब हमारा मन ब्रह्म में लगा हो |
           एक परमात्मा का संग ही हमें संसार से असंग कर देता है | परमात्मा के संग से हम इस भौतिक संसार में रहते हुए भी उसमें आसक्त नहीं होते | जीवन में आने वाली विभिन्न प्रकार की विषमतायें हमें प्रभावित नहीं कर सकती | यही ब्रह्म में मन लगाने का परिणाम है | ब्रह्म में मन लग जाने से हमारा सांसारिक मन भी अमन हो जाता है | अमन होना ही शांति और आनंद को प्राप्त कर लेना है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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