भज गोविन्दम् –
श्लोक सं.26(कल से आगे)-
आइये ! अब इस श्लोक के आधार पर हम अपने
भीतर उपस्थित उन विकारों की थोड़ी चर्चा कर लेते हैं | इस श्लोक में कहा गया है कि हमें
काम, क्रोध, लोभ और मोह का त्यागकर स्वयं में स्थित होकर विचार करना चाहिए कि कौन
हूँ मैं ? ऐसा इस श्लोक के पूर्वार्ध में कहा गया है | इस श्लोक के पूर्वार्ध में मनुष्य
के भीतर उपस्थित चार महत्वपूर्ण विकारों को त्यागने का आग्रह किया गया है | काम,
क्रोध, लोभ और मोह; ये चार वे विकार हैं जिन्हें छोड़ पाना बड़ा ही दुष्कर है | प्रथम
विकार है, काम, काम का अर्थ है, हमारी विभिन्न इच्छाएं | क्या इच्छा है हमारी ?
हमारी इच्छा एक ही है कि किस प्रकार हमें दूसरों से सुख मिले | व्यक्ति सुख को
सदैव अपने से बाहर खोजता है, अपने भीतर नहीं | स्वयं के कारण मिलने वाले सुख की उसमें
कभी इच्छा पैदा ही नहीं होती और न ही कभी हो सकती है | इसका कारण है कि स्वयं से
सुख तो कभी भी प्राप्त किया जा सकता है | इसलिए व्यक्ति सदैव स्वयं के बाहर ही सुख
खोजता है जबकि वास्तविक सुख (आनंद) उसे अपने से ही मिलना है |
हम प्रायः काम को स्त्री-भोग से सम्बंधित मान
लेते हैं परन्तु काम हमारी कामनाओं से सम्बन्ध रखता है जिसमें स्त्री-भोग भी
सम्मिलित है | हाँ, यह एक कटु सत्य भी है कि हमारे भीतर उठने वाली समस्त कामनाओं
का कारण भी मुख्य रूप से स्त्री-भोग ही है | न तो हम स्त्री का सानिध्य लेते और न
ही आसक्ति में पड़कर कामनाओं को पैदा होने देते | काम ही अन्य सभी विकारों का जनक
भी है | काम के बाद प्रमुख विकार है, क्रोध | क्रोध भी काम के कारण ही पैदा होता
है | जब कामनाओं को हम पूरा नहीं कर पाते तब हमें क्रोध आता है | गीता में भगवान
श्री कृष्ण काम को ही सब विकारों का जनक कहते हुए व्यक्ति के पतन का जिम्मेदार
मानते है | इसीलिए वे अर्जुन को कहते हैं कि तू सबसे पहले इस काम को मार डाल |
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः
|
महासनो महापाप्मा विद्धयेनमिह
वैरिणम् || गीता-3/37 ||
अर्थात रजोगुण से उत्पन्न
हुआ यह काम ही क्रोध है | यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी भी तृप्त न होने
वाला और बड़ा पापी है | इसको ही तू इस विषय में वैरी जान |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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