Friday, October 14, 2016

न करोति न लिप्यते-10

अपने स्वभाव की स्मृति पाकर अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को कहते हैं-
                 नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
                 स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || गीता-18/73 ||
    अर्थात हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |
            अर्जुन को तो स्मृति दिलाने के लिए श्री कृष्ण जैसे मित्र और गुरु मिल गए थे परन्तु हमें अपने स्वभाव को याद दिलाने कोई कृष्ण नहीं आयेंगे | गीता ही हमारी मित्र है और गुरु भी | हमें अपने स्वभाव में निरंतर सुधार करते रहना होगा और उस स्वभाव को सदैव स्मृति में बनाये रखना होगा | इस कार्य को करने में गीता की भूमिका महत्वपूर्ण है |

              वर्तमान जीवन का यही स्वभाव, संस्कार बनकर पुनर्जन्म पाकर नए जीवन में आता है और नए कर्म करना प्रारम्भ करवाता है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी उसी संस्कार के वशीभूत होकर कर्म करते रहते हैं और कर्म-बंधन से उत्पन्न कर्म-फलों को भोगकर वह अपना शरीर त्याग देते हैं | परन्तु मनुष्य के साथ केवल ऐसा ही नहीं है | वह पूर्व-जन्म के कर्म के फलों को तो भोगता ही है, साथ ही साथ नए प्रकार के कर्म करते हुए अपने पूर्वजन्म के संस्कार से बने वर्तमान जीवन के प्रारम्भिक स्तर के स्वभाव में सतत परिवर्तन करते हुए अपना नया स्वभाव बना सकता है | यह नया स्वभाव देह त्यागने पर पुनः संस्कार बनकर नए जीवन में प्रारम्भिक स्तर के स्वभाव का निर्माण करता है | 
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

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