गीता में भगवान कहते
हैं-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेsर्जुन
तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि
मायया || गीता-18/61||
अर्थात हे अर्जुन !
शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया
से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के ह्रदय में स्थित है |
गीता का यह श्लोक पुनर्जन्म और कर्मों के मध्य
के सम्बन्ध को स्पष्ट करता है | कर्म कौन करता है तथा किस प्रकार के करता है और फिर
उन कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म के रूप में किस प्रकार के प्राणी के रूप में जन्म
होना है, यह सब ईश्वर ही तय करता है | वह ईश्वर प्राणी के शरीर से बाहर कहीं अन्य
स्थान पर स्थित नहीं है बल्कि उसी प्राणी के साथ उसी के ह्रदय में स्थित है | प्राणी
को उसके किये गए कर्मों के अनुसार ही नया जन्म और नयी योनि उपलब्ध होती है अन्यथा
नहीं | कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म अपने द्वारा किया गया मानना ही पुनर्जन्म
का प्रमुख कारण है |
कर्म भौतिक शरीर नामक यंत्र द्वारा
किये जाते हैं और जब आपका मन उस यंत्र का चालक बन जाता है तभी सब कुछ गड़बड़ हो जाता
है | चालक का होना आवश्यक है, नहीं तो शरीर कर्म कैसे करेगा ? मनुष्य योनि मिली है
तो मन भी साथ में रहेगा परन्तु जब यह मनरूपी चालक शरीर की गुणवता को अपने अनुसार,
अपनी इच्छानुसार अलग दिशा देना चाहता है तभी उस इच्छानुसार कराये गए कर्म ही फल
प्रदान करने वाले होते हैं | गीता में इनको सकाम कर्म नाम से कहा गया है | जब मन अपने
किसी स्वार्थ के बिना इस शरीर से कर्म कराता है अथवा शरीर अपनी गुण-शक्ति के अनुसार
कर्म करता है, तो ये सभी कर्म फल तो प्रदान करते हैं परन्तु उन कर्मों के फलस्वरूप
विभिन्न शरीरों में भ्रमण नहीं करना होता अर्थात पुनर्जन्म में उन कर्मों के फल भोगने
नहीं होते | ऐसे कर्मों को निष्काम-कर्म कहा जाता है |
क्रमशः
|| ह्हरिः शरणम् ||
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