भौतिक
शरीर और दस इन्द्रियां आदि बाह्य-करण कहलाती है जबकि मन, बुद्धि और अहंकार अन्तः-करण
है | मन और बुद्धि किसी भी कर्म को प्रारम्भ करने के लिए जिम्मेवार हैं और यह कर्म
इन्द्रियों सहित इस भौतिक शरीर के द्वारा ही किया जाना संभव हो पाता है | मनुष्य
के ह्रदय में स्थित ईश्वर की भूमिका ऐसे किसी भी कर्म को करने अथवा कर्म करने के
बारे में विचार करने तक में भी नहीं होती है | पूर्वजन्म में किये गए कर्मों के
आधार पर नए जन्म में प्राणी वैसे ही गुणों के साथ इस संसार में आता है, जिनके आधार
पर वह कर्म कर पूर्वजन्म के कर्म फलों को भोग सके | प्रकृति के ये गुण मन के ही एक
भाग, चित्त के साथ नए शरीर में आते हैं | यह चित्त और परमात्मा का शरीर में
उपस्थित अंश-आत्मा, दोनों संयुक्त रूप से जीवात्मा कहलाते हैं और यह जीवात्मा ही प्रकृति
के इन तीनों गुणों को साथ लेकर नए शरीर में प्रवेश करती है | ध्यान रहे, तीनों गुणों को साथ लेकर, किसी भी एक
गुण को पीछे छोड़ कर नहीं |
जीवात्मा के शरीर में प्रवेश करने के साथ ही प्रकृति
के गुण अकेले अथवा आपस में संयोग करते हुए विभिन्न प्रकार के कर्मों को करना/होना
प्रारम्भ कर देते हैं | जीवन के प्रारम्भ में ये संयोग केवल पूर्वजन्म के कर्मों
के फलों को भोगने के लिए होता है और बाद के जीवन में मन में उठी विभिन्न इच्छाओं
और कामनाओं की पूर्ति के लिए होता है | इससे यह स्पष्ट है कि गुण ही गुण के साथ
संयोग और वियोग करते हुए विभिन्न कर्म को करते हैं | अन्तः-करण के कारण यह गुणों
का संयोग होता है और इस संयोग के कारण विभिन्न प्रकार के कर्म भौतिक शरीर के
द्वारा संपन्न होते हैं |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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