क्षर पुरुष के गुणों अर्थात प्रकृति के
गुणों के संयोग से हो रहे कर्मों को जीवात्मा (अक्षर पुरुष) अपने द्वारा किया गया मानने लगती है और उन कर्मों
के फल की भोक्ता भी बन जाती है | इस प्रकार उसकी कर्मों के प्रति आसक्ति ही उसे
नयी योनि पाने को विवश करती है | नयी योनि प्रदान करने का कार्य इस भौतिक शरीर में
बैठा सर्वव्यापी ईश्वर करता है जो कि उत्तम पुरुष (गीता-15/17) है | परमात्मा ने पुनर्जन्म
के लिए निश्चित नियम बना रखे हैं, जीवात्मा उसी के अनुसार नयी योनियों में जाता रहता
है | वास्तविकता यह है कि अक्षर पुरुष (आत्मा) भी उत्तम पुरुष (परमात्मा) का ही
अंश है, अतः वह भी परमात्मा की तरह न कुछ करता है और न ही किसी में लिप्त होता है |
‘आत्मा ही परमात्मा है’ इस बात को भगवान श्री कृष्ण गीता में स्पष्ट करते हुए कहते
हैं-
अहमात्मा गुडाकेश
सर्वभूताशयस्थितः |
अहमादिश्च मध्यं च
भूतानामन्त एव च || गीता-10/20 ||
अर्थात हे अर्जुन ! मैं ही सब भूतों के
ह्रदय में स्थित आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ |
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि इस भौतिक शरीर को चेतनता प्रदान करने वाला हमारा आत्मा,
वास्तव में परमात्मा ही है | अतः यह आत्मा भी परमात्मा की तरह ही न तो कुछ
करता है और न ही लिप्त होता है |
जीवात्मा में चित्त आत्मा के साथ एकाकार हो
जाता है | यह जीवात्मा ही चित्त के कारण अपने आपको कर्ता, भोक्ता मानने लगती है |
करता और भोक्ता मानने के कारण ही कर्म
इसको लिप्त करने में सक्षम हो जाते हैं | चित्त हमारा मन ही तो है और उस मन के
कारण ही कर्म होते हैं, आत्मा की इसमें कोई भूमिका नहीं होती | अतः मन ही करता है,
मन ही भोक्ता है और मन ही लिप्त होता है | अगर हम मन को नियंत्रण में रखें तो न हम
करता बनेंगे और न ही भोक्ता | ऐसे में कोई भी कर्म हमें लिप्त भी नहीं कर पायेगा |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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