यहाँ
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान देते हुए ज्ञानयोगी की समझ को बतला रहे
हैं | ज्ञान हो जाने पर जीवात्मा अपने आपको कर्ता न मानकर यह मानता है कि सभी कर्म
गुणों की गुणों के बीच हो रही क्रियाएं ही
करवा रही है, इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है अर्थात कर्मों को करने से मेरा कोई
लेना देना नहीं है | जीवात्मा के द्वारा ऐसा मान लेना केवल ज्ञान की पराकाष्ठा की
स्थिति में ही संभव है | गीता में भगवान श्री कृष्ण ज्ञान के महत्व को बतलाते हुए
अर्जुन को यहाँ तक कह गए हैं कि-
यथैधांसि समिद्धोSग्निर्भस्मसात्कुरुतेSर्जुन
|
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते
तथा || गीता-4/37 ||
अर्थात हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित
अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को
भस्ममय कर देता है | यह श्लोक परमात्मा के ‘न करोति न लिप्यते’ कहने को भी स्पष्ट
करता है | जब ज्ञान के द्वारा समझ में आ जाता है कि कर्म केवल गुण ही गुण का उपयोग
करते हुए होते हैं, इनके करने अथवा होने में आत्मा का किसी प्रकार का हस्तक्षेप
नहीं है तो फिर जो जीवात्मा पूर्व में जिन्हें अपने द्वारा किया गये कर्म मानता
है, वे सभी कर्म भी जलकर भस्ममय हो जाते है | भस्ममय हो जाने का अर्थ है वह कर्म
जीवात्मा द्वारा कभी किया ही नहीं गया था | जब कर्म किया ही नहीं गया था, यह समझ
में आ जाता है तो फिर आपको कोई भी कर्म कैसे तो अपने में बाँध सकता है और कैसे
लिप्त कर सकता है ? इसी स्थिति को प्राप्त कर लेने को ही गुणातीत होना कहते हैं | अतः
कहा जा सकता है कि गुणातीत होने के लिए एक मात्र ज्ञान ही सर्वोत्तम मार्ग है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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