कर्म की प्रक्रिया –
किसी भी प्रकार के कर्म को करने की
प्रक्रिया को समझने के लिए सर्वप्रथम हमें यह जानना चाहिए कि कर्म कैसे और कहाँ पर
होते हैं ? साथ ही साथ यह जानना भी आवश्यक है कि समस्त कर्मों का कर्ता कौन है ?
परमात्मा ने तो कह दिया ‘न करोति न लिप्यते’, अर्थात न तो मैं कोई कर्म करता हूँ
और न ही किसी कर्म में लिप्त होता हूँ | जब परमात्मा कहते हैं कि दो प्रकार की
मेरी प्रकृति है, अपरा और परा | परमात्मा कुछ भी नहीं करते हैं, अतः करने वाले दो ही
शेष रहे-अपरा अथवा परा | एक तरफ परमात्मा कहते मेरे लिए कोई कर्तव्य नहीं है फिर
भी मैं कर्म करता हूँ (गीता-3/22) और दूसरी तरफ कहते हैं कि मैं कुछ भी नहीं करता
हूँ (गीता-13/31 ), ये दोनों बातें आपस में एक दूसरे की विरोधी है और एक प्रकार का
भ्रम पैदा करती है | भ्रम इसलिए पैदा होता है क्योंकि हम स्थूल रूप से ही कर्म को
समझने का प्रयास करते हैं |
समस्त ब्रह्माण्ड में परमात्मा
का दर्शन करना ही सत्य को देखना है | इस संसार में उस परम पिता परमात्मा की
सर्वोत्तम कृति का नाम है, मनुष्य | मनुष्य के शरीर की प्रकृति अपरा है और इसे
केवल प्रकृति ( क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग अध्याय) अथवा क्षर पुरुष (पुरुषोत्तम योग
अध्याय) भी कहा गया है | इस शरीर का निर्माण प्रकृति के द्वारा होने के कारण इसका
क्षरण होना भी अवश्यम्भावी है | प्रकृति का प्रमुख गुण ही उसकी परिवर्तनशीलता है |
इसके अतिरिक्त दूसरी प्रकृति परा है, जिसे पुरुष नाम से कहा गया है | बिना पुरुष
की उपस्थिति के प्रकृति निश्चेतन अवस्था में ही रह सकती है | चेतनता ही पुरुष (परा
प्रकृति) का मुख्य गुण है | पुरुष का प्रकृति के साथ संयोग होना ही इस संसार का
निर्माण करता है | परा प्रकृति अर्थात पुरुष की विशेषता है - चेतनता व स्थायित्व
और अपरा प्रकृति की विशेषता है जड़ता अर्थात निश्चेतन व परिवर्तनशीलता | अपरा प्रकृति
को जड़ इसीलिए कहा जाता है क्योंकि परा के अभाव में अकेले वह कुछ भी नहीं कर सकती |
इन दोनों के अपने-अपने गुण है, जबकि परमात्मा गुणातीत है | बिना गुण की उपस्थिति
के किसी भी प्रकार का कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता | अतः यह सत्य है कि परमात्मा कोई कर्म नहीं करते क्योंकि
वे गुणातीत है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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