Thursday, October 13, 2016

न करोतो न लिप्यते-9

                आप तनिक एक कल्पना कीजिये, अगर अर्जुन युद्ध-भूमि से हट जाता और कौरवों तथा पांडवों में युद्ध प्रारम्भ हो जाता तो क्या होता ? श्री कृष्ण अगर उसको ज्ञान नहीं भी देते, तो क्या अर्जुन युद्ध से पलायन कर जाता ? नहीं, युद्ध के प्रारम्भ हो जाने पर अर्जुन मूक दर्शक बना बैठा रह ही नहीं सकता था | उसे उसका स्वभाव युद्ध-भूमि में अवश्य ही खींच लाता | ऐसी परिस्थिति में युद्ध का परिणाम क्या रहता, यह अलग बात है | इसी बात को मैं एक अन्य उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूँगा | एक कन्या जो कि बचपन से ही एक कुशल नृत्यांगना है, वह विवाहोपरांत अपने ससुराल में नृत्य करने में एक प्रकार की झिझक महसूस करती है | परन्तु जब किसी समारोह में नृत्य और गायन का कार्यक्रम होता है, उसके पाँव बैठे-बैठे ही थिरकने लगते हैं और जब नृत्य अपने चरम पर होता है तब वही सकुचाई स्त्री उसी नृत्यांगन में सभी प्रकार के संकोच को त्यागकर नृत्य करने लग ही जाती है | कौन उसे ऐसा करने को विवश करता है ? उसका संकोच उसे कुछ समय के लिए नृत्य करने से रोक सकता है परन्तु कुछ समय पश्चात उसका स्वभाव ही उसे नृत्य करने को विवश कर देता है |

              मोह मनुष्य के स्वभाव को परिवर्तित करने का प्रयास करता अवश्य है क्योंकि मोह में अंधा हो जाने से उसे अपने स्वभाव की स्मृति नहीं रहती या यों कहा जा सकता है कि मोह में फंसा व्यक्ति पलायन वादी हो जाता है और वह वास्तविकता का अर्थात सम्मुख उपस्थित हुई परिस्थिति का अपने स्वभाव से मुकाबला करने के स्थान पर उससे दूर भागने का असफल प्रयास करता है | असफल प्रयास मैं इसलिए कहूँगा क्योंकि स्वभाव से दूर भागना किसी भी मनुष्य के लिए असंभव ही है | यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को उसका स्वभाव याद दिलाया और हमें अमूल्य ग्रन्थ गीता के रूप में मिल गया | इसीलिए गीता को प्रबंधन-शास्त्र (Book of management) भी कहा  जाता है | प्रबंधन (Management) की शिक्षा भी हमें गीता की तरह ही ऐसा ही कुछ सिखाती है, जिससे विद्यार्थी को प्रकृति के गुणों से निर्मित अपना स्वभाव स्मरण हो जाये और वह अपनी क्षमता को पहचान ले | 
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

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