Saturday, October 22, 2016

न करोति न लिप्यते-18

गुणातीत –
      अब तक के विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि केवल अपरा प्रकृति अर्थात क्षर पुरुष ही कर्म करता है और वही उनको करने में लिप्त होता है | परमात्मा गुणातीत है | गुणातीत अर्थात जो गुणों से ऊपर हो | प्रकृति ही उस परमात्मा की उपज है, ऐसे में अप्रत्यक्ष रूप से गुण भी परमात्मा के अंतर्गत ही होने चाहिए | सत्य है, परन्तु परमात्मा ने इस संसार को, इस भौतिक जगत को प्रकृति के भरोसे ही छोड़ दिया है | वह तो केवल उदासीन अवस्था में, एक साक्षी की भूमिका में इस संसार की प्रत्येक वस्तु और प्राणी में उपस्थित रहता है | अतः सभी गुण उसके कारण होते हुए भी वह इनमें और ये गुण उसमें नहीं है अर्थात गुण परमात्मा को प्रभावित नहीं करते हैं और न ही परमात्मा इन गुणों के कार्य में अपना दखल देते हैं | यही कारण परमात्मा को गुणातीत बना देता है | उत्तम पुरुष (परमात्मा) की तरह ही अक्षर पुरुष (आत्मा) भी गुणातीत है परन्तु गुणों के संग से, गुणों में आसक्ति हो जाने से वह अपने आपको कर्ता और भोक्ता (जीवात्मा) मानने लगता है, जबकि वास्तव में वह इन दोनों से परे है, गुणातीत है | गुणातीत होने के लिए ज्ञान आवश्यक है | इसी बात को समझाते हुए गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः |
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते || गीता-3/28 ||

अर्थात हे महाबाहो, गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

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