प्रकृति के गुण और
कर्म –
प्रकृति के गुण ही व्यक्ति के कर्म निर्धारित
करते हैं | गुण और कर्म, इन दोनों के बीच में जो सम्बन्ध है, वही कर्म करने का एक
मात्र कारण है | अकेले गुण से भी किसी प्रकार कर्म नहीं किया जा सकता अर्थात कर्म कैसे
और किस प्रकार के करने है, यह भी केवल प्रकृति जनित गुणों के द्वारा होने संभव
नहीं है | शास्त्रों में इसीलिए गुण और कर्म विभाग के नाम से इनका विस्तृत वर्णन
किया गया है | गुण विभाग के अंतर्गत पाँच महा भूत, दसों इन्द्रियां, पाँच
इन्द्रियों के विषय, मन, बुद्धि और अहंकार; इन 23 तत्वों का समूह आता है | कर्म-विभाग
के अंतर्गत इन 23 तत्वों का आपस में मिल-जुल कर कार्य को संपन्न करना आता है | गुण-विभाग
के तत्वों का आपस में ताल-मेल ही कर्म संपादन का मुख्य आधार है | अगर इन 23 तत्वों
के मध्य किसी कारण से सामंजस्य नहीं बन पाता है, तो फिर कर्म का स्वरूप ही
परिवर्तित हो जाता है |
प्रकृति के गुण तीन प्रकार के होते
हैं-सत्व, रज और तम | प्रकृति से ही हमारे इस भौतिक शरीर का निर्माण होता है | यही
कारण है कि इस भौतिक शरीर में भी प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित रहते हैं | केवल उन
गुणों का अनुपात न्यूनाधिक हो सकता है | जीवन के प्रारम्भ में प्रत्येक गुण की मात्रा
पूर्व जन्म से मिले संस्कारों पर निर्भर करती है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी
तो उन्हीं संस्कारों से मिले गुणों की मात्रा के अनुसार कर्म करते हुए अपना जीवन
बिता देते हैं परन्तु मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से अपने गुणों को परिवर्तित कर
अपना स्वभाव बदल सकता है | वह राजसिक गुणों को सात्विक गुणों में अथवा तामसिक
गुणों में बदल सकता है और अपना स्वभाव परिवर्तित कर सकता है | मनुष्य की यही
विशेषता उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है |
क्रमशः|| हरिः शरणम् ||
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