प्रकृति में ये गुण आते कहाँ से हैं ?
अब यह प्रश्न ‘कर्म के कर्ता’ को जानने के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है | इस प्रकृति
में तीन गुण सदैव ही उपस्थित रहते हैं जिन्हें सत्व, रज और तम गुण के नाम से जाना
जाता है | इन तीन गुणों की ही भूमिका किसी भी प्रकार के कर्म को सम्पादित करने में
रहती है | इस धरा पर मनुष्य मात्र ही नहीं बल्कि जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी
ही कर्म करने को विवश है और यह कर्म वह गुणों के वशीभूत होकर ही कर सकता है,
अन्यथा नहीं | इस बात को स्पष्ट
करते हुए गीता में भगवान कहते हैं-
न हि कश्चित्क्षणमपि
जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म
सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः|| गीता-3/5 ||
अर्थात निःसंदेह कोई
भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता क्योंकि सारा
मनुष्य समुदाय प्रकृतिजन्य गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया
जाता है |
कितनी सत्य बात कही है, भगवान श्री कृष्ण
ने | हमें भी कई बार अनुभव होता है, अपने इस क्षण भंगुर जीवन में कि कैसे हमारे
द्वारा कई कर्म जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे और स्वतः ही हो जाते हैं | ऐसे कर्मों का
भान भी हमें नहीं रहता और कर्म हो भी जाते हैं | यह अनुभव केवल उन मनुष्यों को ही
हो सकता है, जिनकी आध्यात्मिक सोच हो और जिन पर परमात्मा की असीम कृपा हो अन्यथा
तो सभी मनुष्य प्रकृति के इन गुणों से मोहित होकर स्वयं को ही प्रत्येक कर्म का
कर्ता मान बैठते हैं | ’प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु |(गीता-3/29)
अर्थात प्रकृति के गुणों से मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते
हैं | कहने का अर्थ यह है कि प्रकृति के गुणों से प्रभावित होकर मनुष्य कर्म के
प्रति आसक्त हो जाता है और कर्मों में आसक्त होने का अर्थ है कर्म का कर्ता स्वयं को
मान लेना | जब आप किसी कर्म के कर्ता बन बैठते हैं तब आपमें यह कर्मासक्ति सतत बढ़ती
ही जाती है और आप एक ही प्रकार के कर्म को बार-बार दोहराते रहते हैं | ऐसे एक ही
प्रकार के बार-बार किये जाने वाले कर्म आपकी प्रकृति के गुणों तक में बहुत बड़ा परिवर्तन
ला देते हैं और वह गुणों में हुआ परिवर्तन आपके स्वभाव को भी परिवर्तित कर देता है
क्योंकि प्रकृति के गुण ही व्यक्ति का स्वभाव निर्धारित करते हैं |
क्रमशः|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment