हम सब इतना सब कुछ जानते हुए भी स्वीकार नहीं
करते हैं कि हम न तो कर्ता हैं और न ही भोक्ता | इस बात को मानने अर्थात स्वीकार
करने के लिए ज्ञान और विवेक का होना आवश्यक है | भागवत में इसी बात को स्पष्ट करते
हुए भगवान श्री कृष्ण उद्धवजी को कहते हैं -
एवं विरक्तः शयने आसनाटनमज्जने |
दर्शनस्पर्शघ्राणभोजनश्रवणादिषु ||
न तथा बद्ध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन्
गुणान् |
प्रकृतिस्थोSप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिल:
|| भागवत-11/11/12-13||
अर्थात ऐसा विचार
करके विवेकी पुरुष समस्त विषयों से विरक्त रहता है और सोने-बैठने, घूमने-फिरने,
नहाने, देखने, छूने, सूंघने, खाने और सुनने आदि क्रियाओं में अपने को कर्ता नहीं मानता
बल्कि गुणों को ही कर्ता मानता है | गुण ही सभी कर्मों के कर्ता-भोक्ता हैं, ऐसा
जानकर विद्वान जन कर्म वासना और फलों से नहीं बंधते | वे प्रकृति में रहकर वैसे ही
असंग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदि से आकाश, जल कि आर्द्रता आदि से सूर्य और गंध आदि
से वायु |
जब आपको सत्य का पता चलता है तब
आप किसी भी सूरत में कर्मों के साथ बंध ही नहीं सकते | एक साधारण व्यक्ति के द्वारा
इस सत्य को स्वीकार कर पाना लगभग असंभव ही है | ऐसे में वह कर्मों के साथ बंध जाता
है और स्वयं को कर्ता समझने की भूल कर बैठता है | वास्तव में गुण ही कर्ता है और गुण
ही भोक्ता है | गुण इस शरीर में हैं ऐसे में यह शरीर ही कर्ता और भोक्ता हुआ |
जीवात्मा की भूमिका तो मात्र उपस्थिति और
दृष्टा की है | बिना दृष्टा के दृश्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार बिना जीवात्मा की
उपस्थिति के अकेले गुण कर्म कर ही नहीं सकते | अतः अचेतन देह कभी कर्म कर ही नहीं
सकती | ध्यान रहे, जीवात्मा की उपस्थिति का अर्थ मात्र दृष्टा होना है, इस माया के
खेल में उतरना और हिस्सा लेना नहीं है | जैसे आकाश में बादल आते-जाते रहते हैं परन्तु आकाश को इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता, वह तो सदैव निर्लिप्त रहता है |क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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