Friday, October 7, 2016

न करोति न लिप्यते-3

       गीता की एक विशेषता है कि प्रारम्भ से अंत तक धीरे-धीरे प्रत्येक महत्वपूर्ण बात को श्रोता/पाठक की बुद्धि की परख करते हुए स्पष्ट किया गया है | ज्यों-ज्यों अर्जुन की बुद्धि गहन विषय को पकडती जाती है, भगवान श्री कृष्ण उस विषय की गहराई में और अधिक उतरते चले जाते है | इसी कारण से पाठक को कई बार यह महसूस होता है कि प्रारम्भ में कही गयी बात की विरोधी बात अंत में कह दी गयी है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है | प्रारम्भ में कही गयी बात के समय अर्जुन की बुद्धि केवल उसी बात को समझ पाती थी और फिर ज्यों-ज्यों उसकी बुद्धि का विकास होता गया, बात को वास्तविक अर्थ में स्पष्ट कर दिया गया | अतः यह माना जाना चाहिए कि बाद में कही गयी बात को पहले कही गयी बात के पूरक के रूप में कहा गया है तथा दोनों बातों के बीच आपस में गहरा सम्बन्ध है |

           उदाहरण स्वरूप मैं आपको बताना चाहता हूँ कि गीता के सातवें अध्याय में परमात्मा अपनी दो प्रकृतियाँ स्पष्ट करते हैं-अपरा और परा प्रकृति | तेरहवें अध्याय में इसी बात को प्रकृति और पुरुष व क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ नाम से कहा गया है और पन्द्रहवें अध्याय में इसे क्षर और अक्षर पुरुष के नाम से कहा गया है | साधारण पाठक के लिए यह विषमता की बात हो सकती है परन्तु सुधि पाठक परमात्मा की इन सभी बातों को एक ही प्रकार का कथन होना मानते हैं | उन्हें विभिन्न स्थानों पर कही गयी इन तीन बातों में किसी भी प्रकार की विषमता नज़र नहीं आती है | प्रारम्भ में अर्जुन की बुद्धि का स्तर देखकर श्री कृष्ण ने दोनों को प्रकृतियाँ बताते हुए स्पष्ट किया है | जब उसकी बुद्धि और तीक्ष्ण हुई तो श्री कृष्ण ने एक को प्रकृति (क्षेत्र) और दूसरे को पुरुष (क्षेत्रज्ञ) कहते हुये स्पष्ट किया और जब अर्जुन की बुद्धि, ग्राह्यता के उच्चतम स्तर पर पहुँच गयी तब तत्त्व की बात बताते हुए इन दोनों ही प्रकृतियों को पुरुष नाम से स्पष्ट किया | वास्तविकता भी यही है कि उत्तम पुरुष की ये दो प्रकृतियाँ भी पुरुष ही है, अतः इनको क्षर और अक्षर पुरुष कहकर संबोधित किया गया है | तीनों ही प्रकार की कही गयी बातों में किसी भी प्रकार की विषमता नहीं है | तीनों ही एक दूसरे की पूरक हैं |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

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