Wednesday, October 12, 2016

न करोति न लिप्यते-8

       जब कर्म से स्वभाव अपना आकार ले लेता है तब मनुष्य उसी के अनुसार आचरण और कर्म करने को विवश हो जाता है | यहाँ आकर स्वभाव की भूमिका कर्मों को करने में स्पष्ट हो जाती है | नवजात शिशु स्वयं किसी भी प्रकार का कर्म नहीं करता है, उससे कुछ कर्म स्वतः ही होते हैं लेकिन बढ़ती उम्र के साथ-साथ वह कर्म भी करना सीख जाता है, जिसमें प्रकृति के गुणों की ही मुख्य भूमिका रहती है | जब शिशु किसी विशेष कर्म के प्रति आसक्त हो जाता है, तब वही कर्म वह बार-बार दोहराता जाता है | एक ही प्रकार के कर्म को बार-बार दोहराते जाने से ही धीरे-धीरे उसके इस जन्म के स्वभाव का निर्माण होता जाता है | आगे के जीवन-काल में उसी स्वभाव के अनुरूप उसका आचरण होगा और वह उसी के अनुसार कर्म करने को बाध्य होगा | उदाहरण स्वरूप हम अर्जुन के जीवन को ही लेते हैं | अर्जुन बाल्यकाल से ही धनुर्विद्या में पारंगत हो गया था और पूर्व जन्म के संस्कार से क्षत्रिय कुल में उसका जन्म हुआ था | अतः युद्ध कौशल उसका स्वभाव था परन्तु अपने सगे सम्बन्धियों को कुरुक्षेत्र में देखकर वह पारिवारिक मोह से ग्रस्त हो गया था, जिस कारण से उसने युद्ध करने से इनकार कर दिया था | भगवान उसे उसका वही क्षत्रिय स्वभाव याद दिलाते हुए कहते हैं कि-
       यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
       मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति || गीता-18/59 ||
अर्थात जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है; क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा |
            पारिवारिक मोह अहंकार कैसे हो सकता है ? यहाँ अर्जुन को परिवार का मोह परेशान नहीं कर रहा है बल्कि उसने अपने जीवन में जो भी तथाकथित ज्ञान प्राप्त किया था उसके अनुसार उसे परिवारजनों के विरुद्ध युद्ध करना अनुचित प्रतीत हो रहा है | उसे अपने उस ज्ञान का अहंकार हो गया था और उसने परिवारजनों के विरुद्ध युद्ध से होने वाली संभावित हानि को देखते हुए युद्ध करने से इनकार कर दिया था | इस ज्ञान के अहंकार के कारण अर्जुन को दुःखी देखकर भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
     अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |
    गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः || गीता-2/11 ||

अर्थात हे अर्जुन ! तू शोक न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और ज्ञानियों के से वचन कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए पण्डितजन शोक नहीं करते |  
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

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