कर्मों में लिप्तता
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परमात्मा ने गीता में कहा है कि न तो मैं कर्मों
को करता हूँ और न ही कर्मों में लिप्त होता हूँ | हमने अभी तक जाना है कि गुण ही
गुण का उपयोग करते हुए कर्म को सम्पादित करते हैं | अतः कर्म केवल गुणों में ही
होते हैं, जो कि प्रकृति का हिस्सा है | जब हम अर्थात जीवात्मा यह मान लेती है कि
मैंने ही ये कर्म किये है, यही कर्मों में लिप्तता है | कर्मों में लिप्त होने का
अर्थ है, कर्मों को करने की भावना का पैदा होना अर्थात एक कर्म के फलस्वरूप प्राप्त
सुख अथवा दुःख के प्रति आसक्ति भाव का पैदा होना जिससे बार-बार उसी प्रकार के कर्म
करने की चाह रखना | ऐसी चाह ही कर्मों में लिप्तता कहलाती है | कर्मों में लिप्तता
कर्म-बंधन पैदा करती है और इसी प्रकार का कर्म-बंधन व्यक्ति को बार–बार कर्म करने
को बाध्य करते हैं | यह कर्म-बंधन कर्मफल के प्रति आसक्ति-भाव को ही व्यक्त करता
है जो कि संसार की विभिन्न योनियों में भटकने का एक मात्र कारण है | परमात्मा कहते
हैं कि मैं कर्मों में लिप्त नहीं होता हूँ, कोई भी कर्म मुझे अपने में लिप्त नहीं
कर सकता क्योंकि किसी भी प्रकार का कर्मफल प्राप्त करने में मेरी आसक्ति नहीं है |
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि उन्हें कर्म लिप्त क्यों
नहीं कर पाते हैं ?
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले
स्पृहा |
इति मां योSभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते
|| गीता-4/14 ||
अर्थात कर्मों के फल
में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते | इस प्रकार जो मुझे
तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता |
इस श्लोक में कर्म के फल को लेकर
आसक्ति की बात कही गयी है | कर्म लिप्त ही तभी करते हैं जब हम उस कर्म से प्राप्त
होने वाले फल के प्रति आसक्त हों | एक फल के प्रति अगर हम अपना लगाव दिखाते हैं तो
फिर हमारा मन बार-बार उस कर्म को करना चाहेगा | वही कर्म हमसे बार-बार होता रहेगा |
इस प्रकार वह कर्म हमें अपने साथ लिप्त कर ही लेता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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