Monday, October 10, 2016

न करोति न लिप्यते-6

          अपरा और परा अर्थात प्रकृति और पुरुष में कौन कर्म करता है ? कर्म तो इन दोनों में से कोई एक अवश्य ही करता है | आइये, हम जानने का प्रयास करें कि शरीर (प्रकृति) कर्मों को करता है अथवा जीवात्मा (पुरुष) | यह तो स्पष्ट है कि उत्तम पुरुष (परमात्मा) तो कर्म नहीं करता है | इस प्रश्न का उत्तर हमें स्वयं भगवान श्री कृष्ण ही दे रहे हैं | वे अर्जुन को कह रहे हैं-
  प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |
  अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || गीता 3/27 ||
अर्थात वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा ही किये जाते है तो भी जिसका  अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ’मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है |

             गीता का ऊपर उल्लेखित यह श्लोक स्पष्ट रूप से कर्मों को करने के लिए प्रकृति को  जिम्मेवार मानता है | प्रकृति के गुणों द्वारा ही समस्त प्रकार के कर्म किये जाते हैं | इन कर्मों को करने में पुरुष की कोई भूमिका नहीं होती है | प्रकृति इस भौतिक शरीर का निर्माण करती है और यह शरीर ही सभी प्रकार के कर्म करता है | साथ ही साथ यह श्लोक इस बात को भी स्पष्ट करता है कि जिस मनुष्य का अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, वह अज्ञानी पुरुष अपने आपको कर्ता मानता है | हमारे इस भौतिक शरीर के दो भाग हैं- बाह्य करण और अन्तःकरण | बाह्य करण में पाँच भौतिक तत्व और इन्द्रियां आ जाती है जबकि अन्तःकरण में मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार आते हैं | बाह्य-करण अर्थात इन्द्रियों सहित पाँच भौतिक तत्व अकेले तो किसी प्रकार का कर्म करने में सक्षम नहीं है, अगर वे अकेले ही सक्षम होते तो किसी भी प्राणी की मृत देह भी कर्म करती रहती | इस भौतिक शरीर के कर्म करने में सक्षम न होने के कारण अब कर्म करने में अन्तः-करण की भूमिका होने को बल मिलता है | यह श्लोक कहता है कि अहंकार से मोहित होने के कारण व्यक्ति अर्थात जीवात्मा स्वयं को कर्ता समझता है परन्तु वास्तव में कर्म केवल प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment