अभी कुछ ही समय पहले मैंने
ज्ञान-विज्ञान पर एक श्रृंखला आपके समक्ष प्रस्तुत की थी | विज्ञान विषय से जुड़े
महानुभावों ने इस पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्रेषित की हैं | इस विषय का चिंतन
करते हुए जो भी उनके मन में प्रश्न पैदा हुए, उन्होंने मुझे प्रेषित करते हुए उन प्रश्नों
का स्पष्टीकरण करने को कहा है | एक प्रश्न बड़ा ही अच्छा लगा और मैंने अनुभव किया
कि इस विषय का और अधिक विवेचन करते हुए अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता है | प्रश्न है
कि जब परमात्मा न तो कुछ करते हैं और न ही कर्मों में लिप्त होते हैं, तो फिर उनका
ही व्यक्त भाव अर्थात मनुष्य कर्मों को क्यूँ करता है और क्यों इनमें लिप्त हो
जाता है तथा जब मनुष्य परमात्मा का ही स्वरूप है तो फिर उसके कर्म करने से परमात्मा
द्वारा ही कर्म करना हुआ, फिर परमात्मा के बारे में क्यों कहा गया है कि “ न करोति
न लिप्यते “?
बड़ा ही गूढ़ प्रश्न है, यह | इस पर विचार
करने को मैं प्राथमिकता देता हूँ | जब मैंने इस विषय पर मनन करना प्रारम्भ किया तब
गीता के ‘कर्म-योग’ और संसार में प्रायः उपयोग लिया जाने वाला शब्द ‘कर्म-योगी’
मेरे विचार के केंद्र-बिंदु बन गए | परमात्मा द्वारा ‘किसी भी प्रकार का कर्म न
किया जाना और न ही उसमें लिप्त होना’ की चर्चा उन्होंने गीता के तेरहवें अध्याय,
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग में की है | विवेचन से पहले मैं उस श्लोक को आपके
समक्ष उद्घृत करता हूँ |
भगवान श्री कृष्ण
अर्जुन को कह रहे हैं -
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः| शरीरस्थोपि कौन्तेय न करोति न
लिप्यते ||गीता-13/31||
अर्थात् हे कुन्ती नन्दन ! यह पुरुष
(चेतन,आत्मा) अनादि होने से और गुणों से रहित होने से
अविनाशी परमात्मा स्वरूप ही है | यह शरीर
में रहता हुआ भी न करता है और न ही लिप्त होता है |
|| हरिः शरणम् ||
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