प्रकृति, जो कि
पुरुष (क्षर पुरुष,गीता-15/16) भी है, उसी प्रकृति (क्षर पुरुष) में स्थित अक्षर पुरुष
(जीवात्मा) ही कर्म फल का भोक्ता है | जीवात्मा में आत्मा के साथ मन (चित्त)
संलग्न रहता है, वही चित्त कर्म फल का भोक्ता है, आत्मा नहीं | आत्मा की भूमिका इन
कर्मों के करने और उसके फल को भोगने में कहीं पर भी नहीं होती परन्तु प्रकृति के
इन तीन गुणों का संग हो जाने के कारण आत्मा, मन (चित्त) के साथ संयुक्त होने के
कारण जीवात्मा बनकर उन कर्मों के फल की भोक्ता स्वयं को मान बैठती है | जैसे कि
सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि सब का भोक्ता केवल क्षर पुरुष (मन सहित
भौतिक शरीर) ही है, अक्षर पुरुष (जीवात्मा) का स्वयं को भोक्ता मानना केवल प्रकृति
के गुणों में आसक्ति के कारण ही संभव होना दिखाई देता है परन्तु वास्तव में आत्मा
इन सब प्रकार के द्वंद्व से निर्लिप्त ही है | गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते
हैं-
पुरुषः प्रकृतिस्थो
हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुणसंगोSस्य
सदसद्योनिजन्मसु || गीता-13/21 ||
अर्थात प्रकृति में
स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का
संग ही इस जीवात्मा के अच्छी और बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है |
किस प्रकार और क्यों जीवात्मा अच्छी
अथवा बुरी योनि में जाकर जन्म लेता है ? जीवात्मा अधूरी रही कामनाओं को पूरा करने
के लिए तथा मनुष्य योनि में किये गए कर्मों के विभिन्न फल भोगने के लिए ही ऐसा
होता है | अगर ऐसा नहीं है अर्थात अगर कोई कामना मनुष्य जीवन में शेष नहीं रहे और
न ही जीवन में कोई कर्म ऐसा किया हो जिसका फल भोगना शेष हो तो फिर नई योनि में जाना संभव ही नहीं होगा | जीवन काल
में यही मुक्ति की अवस्था है और देह की मृत्यु के उपरांत मोक्ष होना भी इसी को
कहते हैं |
क्रमशः|| हरिः शरणम् ||
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