Friday, October 28, 2016

न करोति न लिप्यते-24 समापन कड़ी -सारांश

सारांश –
       परमात्मा की दोनों ही प्रकृतियाँ उसकी स्वयं की ही है, क्योंकि अपने आनंद के लिए इनका निर्माण उन्होंने ही किया है | इसलिए अगर अपरा प्रकृति (भौतिक शरीर) में कोई कर्म होता है तो वह कर्म परमात्मा के द्वारा ही किया हुआ माना जा सकता है |  परा प्रकृति (आत्मा) किसी प्रकार का कर्म नहीं करती फिर भी अहंकार के कारण अपरा में हुए कार्य को वह अपने द्वारा किया गया कर्म मान बैठती है | परमात्मा द्वारा अपरा का निर्माण उससे कर्म करवाते हुए आनंद प्राप्त करने के लिए ही किया गया था | उस प्रकृति को आनंद प्राप्त करने तक ही स्वीकार करना चाहिए, उसके साथ बंधना नहीं चाहिए | यह बंधन परा (आत्मा) को अपना वास्तविक स्वरूप पहचान पाने से वंचित कर देता है | इस कारण से परा (आत्मा) अपने आप को अपरा (शरीर) समझने लगती है, जो कि असत्य है | अपरा यानि प्रकृति अर्थात क्षर पुरुष (शरीर) तो कर्म करता है, परा अर्थात अक्षर पुरुष (जीवात्मा) उस कर्म के फल को भोगता है और परम यानि उत्तम पुरुष (परमात्मा) किसी भी प्रकार के कर्म को न तो करता है और न ही उसको कोई कर्म लिप्त कर सकता हैं | परा (आत्मा) आप स्वयं हैं, आप अपरा (शरीर) नहीं हैं | अपरा (शरीर) परिवर्तनशील है, विनाशी है, क्षर है अतः परमात्मा के द्वारा निर्मित होने के बावजूद भी वह परमात्मा नहीं है | आप परा (आत्मा) है इसलिए आप परमात्मा स्वरूप हैं क्योंकि परमात्मा भी अविनाशी हैं, अक्षर है और परा (आत्मा) भी अविनाशी है, अक्षर है |
             गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा भी है-
                         प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
                         यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ||गीता-13/29 ||
            अर्थात जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है | यहाँ आकर भगवान एक दम से स्पष्ट कर देते हैं कि सभी कर्म प्रकृति द्वारा ही किये जाते हैं, आत्मा की इन कर्मों को करने में कोई भूमिका नहीं होती है | अतः मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर (प्रकृति) द्वारा किये जा रहे कर्मों को स्वयं के द्वारा किया जाना न माने | ऐसा स्वीकार कर लेने से उसे कोई कर्म लिप्त नहीं कर पायेगा | जिस व्यक्ति को कर्म लिप्त नहीं कर पाते हैं, वास्तव में वही मुक्त है-जीवन-मुक्त |
              इतने विवेचन से स्पष्ट है कि आप शरीर न होकर परमात्मा स्वरूप हैं | कर्म शरीर में ही होते हैं आप में नहीं | अतः न तो आप कर्म करते हैं और न ही आपको कर्म लिप्त कर सकते हैं | आपके द्वारा कर्मों को करना और लिप्त होना आपके अहंकार के कारण है | अगर अहंकार का त्याग कर दें तो फिर आप भी न तो कुछ करते हैं और न ही लिप्त होते हैं | आप स्वयं परमात्मा हो जाते है और फिर आप भी परमात्मा की तरह कह सकते हैं- ‘न करोति न लिप्यते’|
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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