गुणातीत होने के बारे में एक बात स्पष्ट है कि सब
गुण परमात्मा के ही बनाये हुए हैं फिर भी न तो गुण उसमें हैं और न ही वह गुणों में
है | इसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि चाहे जितने कर्म उसके मन और इन्द्रियों
द्वारा उसके शरीर से हुए हो, वह यह स्वीकार करे कि वह न तो इनका कर्ता है और न ही
भोक्ता | सब कुछ प्रारब्ध वश उपलब्ध हुआ है और यहाँ तक कि जिस शरीर से कर्म किये
जा रहे हैं वह भी प्रारब्ध के अधीन है | श्री मद्भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं
–
दैवाधीने शरीरेSस्मिन् गुणभाव्येन कर्मणा |
वर्तमानोSबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबद्ध्यते
|| भागवत-11/11/10||
अर्थात यह शरीर
प्रारब्ध के अधीन है | इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं, सब गुणों
की प्रेरणा से ही होते हैं | अज्ञानी पुरुष इन कर्मों का कर्ता स्वयं को मान बैठता
है और इस प्रकार वह कर्तापन के साथ बंध जाता है |
व्यक्ति दो प्रकार के कर्म करता
है-शारीरिक और मानसिक | शारीरिक कर्म में कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेद्रियाँ सक्रिय
रहकर प्राकृतिक गुणों में परस्पर क्रियाएं करवाते हुए कर्म संपन्न करती है जबकि
मानसिक कर्म में केवल मन ही कर्म करने के बारे में विचार करता रहता है | फल दोनों
ही प्रकार के कर्मों से प्राप्त होने अवश्यम्भावी है | शरीर प्रकृति की देन है और
वह प्रकृति के गुणों से सुसज्जित है | गुण ही गुण के साथ संयोग कर कर्म शरीर से
करवाते हैं, यही वास्तविकता है | ऐसे गुण आधारित सभी कर्म में मन सहित सभी
इन्द्रियों की भूमिका रहती है, आत्मा की बिलकुल भी नहीं | शरीर प्रारब्ध के अधीन
है, अतः गुण भी प्रारब्ध के अधीन हुए | प्रारब्ध पूर्वजन्म के कर्मों से बनता है,
ऐसे में वर्तमान जीवन भी पूर्व मानव जीवन के आधार पर मिला है | इस सत्य को स्वीकार
कर लेने से जीवात्मा स्वयं ही कर्तापन से दूर हो जाता है अन्यथा वह कर्तापन के साथ
बंध जाता है और कर्म उसे अपने साथ लिप्त कर लेते हैं |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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