कर्मों में लिप्त न
होने की बात को महर्षि अष्टावक्र, जनक जी को इस प्रकार से स्पष्ट कर रहे हैं-
सुखे दुःखे जन्ममृत्यु दैवादेवेति निश्चयी |
साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न लिप्यते
|| अष्टावक्र गीता-11/4||
अर्थात सुख और दुःख,
जन्म और मृत्यु देव योग से ही प्राप्त होते हैं, ऐसा निश्चय करने वाला पुरुष साध्य
कर्मों को करता हुआ और प्रयास रहित कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता |
सुख-दुःख, जन्म-मरण भाग्यानुसार ही
प्राप्त होते हैं | ये साध्य कर्म कर के प्राप्त नहीं किये जा सकते, जीव कर्ता न
होकर भोक्ता मात्र है | यह जानकर ज्ञानी व्यक्ति केवल करने योग्य कर्मों को प्रयास
रहित करता हुआ उनमें लिप्त नहीं होता है | कर्मों
को देव योग से होते हुए मानकर वह कर्तापन से मुक्त हो जाता है | वह जान जाता है कि
सब कर्म परमात्मा जनित प्रकृति में और उसके द्वारा ही हो रहे है, मैं तो केवल
निमित मात्र हूँ, मात्र एक द्रष्टा हूँ | इस प्रकार इस प्रकार जानकार वह चिंता मुक्त और साथ ही साथ अहंकार
मुक्त भी हो जाता है |
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कर्मफल में
आसक्ति ही एक मात्र कारण है जिससे कर्म मनुष्य को अपने साथ बाँध लेते हैं अर्थात
लिप्त करते हैं | जब व्यक्ति कर्म होने की क्रिया को तत्व से समझ लेता है, फिर उसे
कोई कर्म लिप्त नहीं कर सकता | कर्मों को न करना और लिप्त भी न होना, दोनों को ही
संभव करना हो तो आपको प्रकृति के तीनों गुणों से परे हो जाना होगा | इसका अर्थ यह
कदापि नहीं है कि प्रकृति का त्याग कर दे, जो कि किसी भी जीवन में संभव ही नहीं है
| इसका अर्थ है, प्रकृति के साथ रहते हुए उसके गुणों से अप्रभावित रहना | इस
प्रकार गुणों से प्रभावित न होना ही गुणातीत होना है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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