साधारण
मनुष्य के बस में ज्ञान की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करना लगभग असंभव है | इसीलिए
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने केवल ज्ञान-योग को ही महत्त्व नहीं दिया है बल्कि दो
अन्य योग, कर्म-योग और भक्ति-योग का भी विवेचन किया है | किस के लिए कौन सा मार्ग
अपनाना उचित रहेगा, इसका उल्लेख हमें भागवत में भी मिलता है |
निर्विणानां ज्ञायोगो न्यासिनामिह
कर्मसु |
तेष्वनिर्विणचित्तानां कर्मयोगस्तु
कामिनाम् ||
यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः
पुमान् |
न निर्विणो नातिसक्तो भक्तियोगोSस्य
सिद्धिदः|| भागवत-11/20/7-8 ||
भागवत में उद्धवजी को भगवान कह रहे हैं कि जो लोग
कर्मों तथा उनके फलों से विरक्त हो चुके हैं और उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञान
योग के अधिकारी हैं | इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से वैराग्य
नहीं हुआ है, उनमें दुःख बुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्म योग के अधिकारी
हैं | जो पुरुष न तो विरक्त हैं और न अत्यंत आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्म के शुभ
कर्म से सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदि में उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्ति योग का
अधिकारी है | उसे भक्ति योग के द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है |
भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट कर
दिया है कि जिस प्रकार व्यक्ति की जैसी मानसिकता होती है, उसे उसी प्रकार के मार्ग
को चुनना चाहिए | मार्ग चुनना महत्वपूर्ण है क्योंकि गलत मार्ग चुन लिया जाये तो
भटकना हो सकता है | दुःख बुद्धि होने का अर्थ है यह जान लेना कि इस संसार में केवल
दुःख ही दुःख है, सच्चा सुख तो परमात्मा में ही है | ज्ञान, कर्म और भक्ति मार्ग
पर चलना अलग – अलग माने जा सकते हैं परन्तु सभी का लक्ष्य एक ही होता है- परमात्मा
तक पहुंचना |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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